________________
rev
श्रावकाचार - संग्रह
पात्र मे गृहमायातु समायाते च सन्मुनौ । पात्र मयाऽद्य सम्प्राप्तं प्रीतः श्रद्धायुतो भवेत् १५८ आहारावधि तत्पार्श्वे सेवां कुर्वन् प्रतिष्ठते । महाधर्मानुरागेण श्रावको भक्तिमान् स च ॥ १५९ राज्यादिकार्यं मे तस्माद् भविष्यति मुनेर्मम । इतीच्छावजितो दाता स भवेल्लो भवर्जितः ॥ १६० कार्यार्थं स्वगृहस्यान्ते कीटकादीन् विलोकयन् । सम्प्रयात्येति यो दाता दयावान् न प्रकीर्त्यते ॥ १६१ साधिके च व्यये जाते कातरो यो न जायते । शक्तिमान् स भवेद्दाता गम्भीरः सागरादपि ॥ १६२ स्त्री-पुत्रादिकृते दोषे दानकाले न कुप्यति । सुश्रावकः क्षमायुक्तो भव्यते स विदांवरैः ॥ १६३ पात्रापात्र विशेषज्ञो गुणदोषविचारवान् । देयादेयं च जानाति स दाता ज्ञानवान् सुधीः ॥१६४
तथा चोक्तं दातृविज्ञानम् -
विवणं विरसं विद्धमस्यात्मप्रभृतं च यत् । मुनिभ्योऽनं न तद्देयं यच्च भुक्तं गदावहम् ॥२१ उच्छिष्टं नीचलोका मन्योद्दिष्टं विगर्हितम् । न देयं दुर्जनस्पृष्टं देव-यक्षादिकल्पितम् ॥१६५ ग्रामान्तरात्समानीतं मन्त्राऽऽनीतमुपायनम् । न देयमापणक्रीतं विरुद्धं वाऽयथार्तुकम् ॥१६६ आहारौषधशास्त्रोरुनिर्भयाख्यं चतुर्विधम् । श्रीमज्जिनागमे प्रोक्तं सतां दानं सुखप्रदम् ॥१६७ पवित्रैर्नवभिः पुण्यैर्दा सप्तगुणैर्युतः । यः सुपात्राय सद्-भक्त्या दानमाहारसंज्ञकम् ॥१६८
गुण कहे हैं || १५७|| 'पात्र मेरे घर आवे; (ऐसी भावना रखे) और उत्तम मुनिके आनेपर 'आज मुझे पात्रका सुलाभ हुआ है' इस प्रकार प्रसन्न होकर श्रद्धा युक्त हो गये । यह श्रद्धा गुण है || १५८॥ पुनः आहार होने तक उनके समीप महान् धर्मानुरागसे उनकी सेवा करता हुआ रहे; वह भक्तिमान् श्रावक है । यह भक्तिगुण है || १५९ || 'इस मुनिको दान देनेसे मेरा अमुक राज्यादिकार्य हो जायगा' इस प्रकारकी इच्छासे रहित जो दाता होता है, वह लोभ-रहित कहलाता है । यह अलभत्वगुण है || १६० || जो दयावान् दाता अपने घरके भीतर कार्यके लिए आते जाते कीड़े आदिको देखता हुआ जाता आता है, वह दयावान् कहलाता है || १६१ || दान देनेमें अधिक व्यय हो जानेपर भी जो दाता कायर नहीं होता, प्रत्युत समुद्रसे भी गम्भीर बना रहता है, वह शक्तिमान् कहा जाता है || १६२ || दानके समय स्त्री-पुत्रादिके द्वारा किसी दोष के हो जानेपर भी कुपित नहीं होता है, वह सुश्रावक ज्ञानियोंके द्वारा क्षमायुक्त कहा गया है || १६३ || जो पात्र और अपात्र के भेदको जानता है, गुण-दोषका विचारक है, और देय अदेय वस्तुको जानता है, वह सुधी दाता ज्ञानवान् कहलाता है || १६४॥
दाता के विज्ञान के विषय में कहा है-मुनियोंके लिये विवर्ण, विरस (चलित रस), विद्ध (घुना ) और जीवोंसे भरा हुआ अन्न नहीं देना चाहिए। तथा जो वस्तु शुद्ध होनेपर भी खानेसे रोग-कारक हो, वह भी नहीं देना चाहिये ||२१||
जो वस्तु उच्छिष्ट हो, नीच लोगोंके योग्य हो, अन्यके उद्देशसे बनायी गयी हो, निन्दनीय हो, दुर्जनके द्वारा स्पर्श की गयी हो, देव-यक्षादिके लिये संकल्पित हो, अन्य ग्रामसे लायी गयी हो, मन्त्र द्वारा बुलायी गयी हो, भेंटमें आयी हो, बाजारसे खरीदी गयी हो, प्रकृति-विरुद्ध हो, ऋतुके प्रतिकूल हो, ऐसा आहार भी साधुको नहीं देना चाहिये || १६५ - १६६ ॥ श्रीमज्जिनागममें आहार, औषध, शास्त्र और अभय नामके चार प्रकारके दान सज्जनोंको सुख दायक कहे गये हैं || १६७|| पवित्र नव पुण्योंसे, और दाताके सात गुणोंसे युक्त जो पुरुष सुपात्र के लिये उत्तम भक्ति के साथ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org