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________________ ४८७ धर्मोपदेशपीयूषवर्ष-श्रावकाचार वस्त्रालङ्करणं यानं वाहनं शयनं स्त्रियः । भाजनादिकवस्तूच्चैरुपभोगः समाहृतः ॥१४४ तद्-द्वयोश्च यथाशक्ति यमो वा नियमो बुधैः । आजन्मपक्ष-मासर्तुवर्षायेः संविधीयते ॥१४५ अत्यादरः स्मृतिनित्यं लौल्यं सानुभवं तृषा । भोगोपभोगसङ्ख्यायामतीचाराश्च पञ्च वै ॥१४६ संविभागो भवेत्यागस्त्यागो दानं च पूजनम् । तदानं भक्तितो देयं सुपात्राय थथाविधि ॥१४७ तत्सुपात्रं विधा प्रोक्तं समुत्कृष्टं च मध्यमम् । जघन्यं च समाख्यातं मुनीन्द्रनिलोचनैः ॥१४८ महावतानि यः पञ्च तिस्रो गुप्तीनिरन्तरम् । समितीः पञ्च सन्धत्ते स मुनिः पात्रमुत्तमम् ॥१४९ निर्ग्रन्थोऽसौ महापात्र यानपात्रमिवोत्तमः । महासंसारवाराशौ सुधी: स्व-परतारकः ॥१५० सम्यक्त्वेन समायुक्तो वतै दशभिर्युतः । स श्रावको भवेत्पात्र मध्यमं धर्मवत्सलः ॥१५१ केवलं सारसम्यक्त्वं यो बित्ति विचक्षणः । स जघन्यं सुधीः पात्र सद्-दृष्टिजिनभक्तिभाक् ॥१५२ इति त्रिविधपात्रेभ्यो दान देयं चतुर्विधम् । महादयापरैर्भव्यैर्यथायोग्यं यथाविधि ॥१५२ विघितृगुणा दानभेदाः प्रोक्ता जिनागमे । तान् सक्षेपेण संवक्ष्ये पूर्वाचार्यक्रमेण च ॥१५४ पुण्यात्स्वगृहमायाते सुपात्र मुनिसत्तमे। श्रावकेण विधिः कार्यो नवधा पुण्यभागिना *१५५ प्रतिग्रहोच्चैःसुस्थानं पादक्षालनमर्चनम् । नतिस्त्रियोगभोज्येषु शुद्धयो नवधा विधिः ॥१५६ श्रद्धा भक्तिरलोभत्वं दया शक्तिः क्षमा परा। विज्ञानं सप्तधा चेति गुणा दातुः प्रकीत्तिताः ॥१५७ वस्त्र, अलंकार, यान, वाहन, शयन, स्त्री और पात्रादिक वस्तुओंका सेवन करना उपभोग कहा गया है ।।१४४। इन भोग और उपभोग दोनोंका ही ज्ञानी जन जन्म भरके लिए यम और पक्ष, मास, ऋतु (दो मास), वर्ष आदिकालकी मर्यादारूप नियमको धारण करते हैं ॥१४५।। भोगउपभोगकी वस्तुओंमें अति आदरभाव रखना, पूर्वमें भोगे भोगोंका स्मरण करना, वर्तमानके भोगोंमें अति लोलुपता रखना, नहीं भोगते हुए भी उनका अनुभव-सा करना और आगामी कालमें उनके भोगनेकी तृष्णा रखना, ये पांच भोगोपभोग संख्यातव्रतके अतिचार हैं ॥१४६॥ संविभाग नाम त्यागका है और त्याग दान एवं पूजनको कहते हैं, इसलिए यह दान सुपात्रके लिए भक्तिसे यथाविधि देना चाहिए ॥१४७।। ज्ञाननेत्रवाले मुनीन्द्रोंने वह सुपात्र तीन प्रकारके कहे हैं-उत्तम, मध्यम और जघन्य ।।१४८|| जो निरन्तर पाँचों महावतोंको, तीनों गुप्तियोंको और पांचों समितियोंको धारण करता है, वह मुनि उत्तम पात्र है ॥१४९।। वह महापात्र उत्तम निर्ग्रन्थ बुद्धिमान् महान् संसाररूप सागरमें यानपात्र (जहाज) के समान स्व-परका तारक है॥१५०॥ जो सम्यग्दर्शनसे संयुक्त है, और बारह व्रतोंसे भी समायुक्त है, वह धर्म-वत्सल श्रावक मध्यम पात्र है ।।१५१।। जो विचक्षण केवल सारभूत सम्यक्त्वको धारण करता है, वह सुधी, जिन-भक्त सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र है ।।१५२।। महान् दयालु भव्य जीवोंको उपर्युक्त तीनों प्रकारके पात्रोंके लिए चारों प्रकारका दान यथायोग्य विधिपूर्वक देना चाहिए ॥१५३॥ जैन आगममें दानकी विधि, दाताके गुण और दानके भेद कहे गये हैं, उन्हें मैं पूर्वाचार्योंके अनुसार संक्षेप में कहता हूँ ।।१५४।। पुण्योदयसे सुपात्र श्रेष्ठ मुनिके अपने घर आनेपर पुण्यशाली श्रावकको नवधा भक्ति करनी चाहिए ॥१५५।। प्रतिग्रह, उच्चस्थान, पाद प्रक्षालन, पूजन, नमस्कार, तीनों भोगोंकी शुद्धि ये नवधा भक्ति ही दानकी विधि है ॥१५६।। श्रद्धा, भक्ति, अलोभत्व, दया, शक्ति, उत्तम क्षमा और विज्ञान ये दाताके सात प्रकारले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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