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________________ धर्मोपदेशपीयूषवर्ष - श्रावकाचार ४८३ यदुक्तं च आमिससरिसउ भासियउ सो अंघो जो खाइ । दोह मुहुत्तहं उप्परिहं लोणिउं सम्मुच्छाइ ॥१७ गो-महिष्याः पयश्चापि वत्सोत्पत्तिदिनात्तथा । सन्त्याज्जं सर्वथा सद्भिविनैः पञ्चदशप्रः ॥ १०१ दुग्धे तपरिक्षेपाधि तक्रं दिनद्वयम् । ग्राह्यं ततः परं भव्यैर्वर्जनीयं च सर्वदा ॥१०२ इत्यादिकं परित्याज्यं यत्प्रोक्तं श्रीजिनागमे । कन्दमूलादिकं वस्तु तत्त्याज्यं श्रावकोत्तमैः ॥ १०३ इत्यादिकं जिनपतेः परमागमे वै यद्वजितं मुनिवरैरिह कन्दकादि । तत्सर्वथा निजहितैः परिवर्जनीयं सन्तोषसंयमपरै: सुविचक्षणैश्च ॥ १०४ तथा श्रावकलोकानां दिग्देशानर्थदण्डकम् । गुणव्रतं त्रिधा प्राहुर्मुनीन्द्राः श्रुतधारिणः ॥ १०५ मर्यादां मृत्युपर्यन्तं कृत्वा यत्सर्वदिक्षु यः । ततः परं न यात्येव तस्याद्यं स्याद्गुणव्रतम् ॥१०६ नदी-समुद्र - गिर्यादि-योजनाद्यैश्च धीधनैः । मर्यादा दिग्वते प्रोक्ता सतां सन्तोषशालिनाम् ॥१०७ ऊर्ध्वस्तियं गाक्रान्तिः क्षेत्रवृद्धिश्च विस्मृतिः । दिव्रतस्याप्यतीचाराः पञ्चैते ज्ञानिभिः स्मृताः ॥ १०८ देशव्रतं तथा प्रोक्तं यद्विशालस्य संहृतिः । विनं प्रति स्वशक्त्या च क्रियते सुश्रावकैः शुभम् ॥१०९ तस्य चापि गृह-ग्राम-नदी-योजनकादिभिः । मर्यादां सूरयो घोरा वदन्ति स्म सुखप्रदाम् ॥ ११० प्रेषण-शब्दाऽऽनयनं रूपाभिव्यक्तिरत्र च । पुद्गलक्षेपणं पञ्चातीचारा देशसवते ॥ १११ कहा भी है-नवनीत दो मुहूर्तके ऊपर सम्मूच्छित हो जाता है, अतः वह मांस-सदृश कहा गया है । जो इसे खाता है, वह अन्धा है ||१७|| गाय-भैंस का दूध भी बछड़ा उत्पन्न होनेके दिनसे लेकर पन्द्रह दिन तक सज्जनोंको सर्वथा ही त्याग करना चाहिए || १०१ ॥ दूधमें जामनके लिए छांछ डालनेके पश्चात् जमा हुआ दही और उससे बना छाँछ दो दिन तक ही ग्रहण करने के योग्य हैं । उसके पश्चात् भव्योंको उसका सर्वदा त्याग करना चाहिए || १०२ ॥ श्रीजिनागममें उपर्युक्त आदि जिन वस्तुओंको परित्याज्य कहा है, वे सभी कन्दमूलादिक वस्तुएँ उत्तम श्रावकोंको त्यागना चाहिए ॥१०३॥ जिनेन्द्रदेवके परमागममें कन्दमूल इत्यादि जिन वस्तुओंको यहां मुनिवरोंने वर्जनीय कहा है वे सभी वस्तुएं आत्म- हितैषी, सन्तोष और संयममें तत्पर ज्ञानियोंको सर्वथा ही परिवर्जन करना चाहिए || १०४ ॥ श्रुत-धारी मुनीन्द्रोंने श्रावक लोगोंके दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत, ये तीन गुणव्रत कहे हैं ||१०५|| सभी दिशाओंमें मर्यादा करके मृत्यु पर्यन्त जो उससे बाहिर नहीं जाता है, उसके यह पहला दिग्व्रत नामका गुणव्रत होता है || १०६ || सन्तोषशाली सन्तोंके दिग्व्रतमें ज्ञानियोंने नदी, समुद्र, पर्वत और योजनादिके द्वारा मर्यादा करनेका विधान किया है ॥ १०७॥ ऊर्ध्वातिक्रान्ति, अधोऽतिक्रान्ति, तिर्यगतिक्रान्ति, क्षेत्रवृद्धि और सीमविस्मृति ये पाँच अतिचार दिग्व्रतके ज्ञानियोंने कहे हैं ||१०८|| दिग्व्रतमें स्वीकृत विशाल क्षेत्रका प्रतिदिन अपनी शक्तिके अनुसार उत्तम श्रावकोंके द्वारा जो संकोच किया जाता है, उसे शुभ देशव्रत कहा गया है || १०९ || धीरवीर आचार्योंने उस देशव्रतकी भी घर, गली, ग्राम, नदी और योजनादिके द्वारा मर्यादा करनेको सुखदायी कहा है ॥११०॥ इस देशव्रतमें मर्यादित क्षेत्रसे बाहिर प्रेषण, आनयन, शब्दोच्चारण, रूपाभिव्यक्ति और पुद्गल क्षेपण करना ये पाँच अतिचार होते हैं ॥ १११ ॥ आचार्योंने पापोपदेश, हिसादान,. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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