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________________ ४८२ थावकाचार-संग्रह जैनधर्मे तथा नीतिमार्गे सद्धिः प्रकीर्तितम् । जलानां गालनं धर्मः प्रसिद्धो भुवनत्रये ॥९२ स्मृतिवाक्यं चदृष्टिपूतं न्यसेत्पादं पटपूतं जलं पिबेत् । सत्यपूतं वदेद्वाक्यं मन:पूतं समाचरेत् ॥१५ यस्माज्जलं समानीतं गालयित्वा सुयत्नतः । तज्जीवसंयुतं तोयं तत्रोच्चैर्मुच्यते बुधैः ॥९३ एवं यत्नं प्रकुर्वन्ति ये सदा जलगालने । भवन्ति सुखिनो नित्यं ते भव्या धर्मवत्सलाः ॥९४ कन्दमूलं च सन्धानं काञ्जिकं वह्निदूरगम् । नवनीतं पुष्पशातं बिल्वालाम्बुफलं त्यजेत् ॥९५ त्यजेदनन्तकायित्वाच्छङ्गवेरादिकं सदा । तुच्छेन भक्षितेनापि येन पापं भवेन्महत् ॥९६ जिनेन्द्रवचने प्रोता ये भव्याः सद्दयान्विताः । तैनित्यं कन्दमूलं च सन्त्याज्यं पापकारणम् ॥९७ सन्धानं त्रसजीवानां शरीररसमिश्रितम् । कि परं भक्षित तस्मिन् प्रयाति पिशितव्रतम् ॥९८ एकेन्द्रियादिका जीवा जायन्ते शीतकाञ्जिके । तस्मात्तद्-व्रतरक्षार्थ काञ्जिकं सर्वदा त्यजेत् ॥९९ उक्तं चचहुं एइंदिय विणि छह अट्टहं तिण्णि हवंति । वह चरिदिय जीवडा बारह पंचण भंति ॥१५ मुहूर्तद्वयतः पश्चाज्जीवाश्चैकेन्द्रियादयः । जायन्ते नवनीतेऽपि तस्मात्तत्यज्यते बुधैः ॥१०० द्वारा कहा गया जलका गालन तीनों भुवनोंमें धर्मरूपसे प्रसिद्ध है ॥१२॥ स्मृतिका वचन भी इस प्रकार है—आँखसे देखकर पैरको रखे, वस्त्रसे गालित पवित्र जल पीवे, सत्यसे पवित्र वचन बोले और मनसे पवित्र आचरण करे ॥१५॥ जिस जलाशयसे जल लाया गया है, उसे सुप्रयत्नसे गालकर उस जीवसंयुक्त जल (जियानी) को ज्ञानी जन सावधानीके साथ वहींपर छोड़ते हैं ।।९३।। जो धर्म-वत्सल भव्य जन जल-गालनमें इस प्रकारसे सदा प्रयत्न करते हैं, वे सुखी रहते हैं ।।९४।। कन्दमूल, सन्धानक (अचार-मुरब्बा) काँजी बड़े, अग्निपर नहीं तपाया नवनीत (लोनी), पुष्प, शाक, बिल्वफल और अलाबु (लौकीतुम्बा) का त्याग करे ॥९५।। अदरक आदिको अनन्तकायिक होनेसे सदा ही तजे, क्योंकि इन तुच्छ वस्तुओंके खानेसे लाभ तो अल्प होता है और पाप भारी होता है ॥९६।। जा भव्य जिनेन्द्रदेवके वचनोंमें प्रीति रखते हैं और उतम दयासे संयुक्त हैं, उन्हें नित्य ही पापके कारणभूत सभी कन्दमूल तजना चाहिए ॥९७।। सन्धानक (आठ पहरके बाद सड़ते रहनेसे) त्रसजीवोंके शरीरके रससे मिश्रित हो जाता है, (अतः वह अभक्ष्य है ।) अधिक क्या कहें उसके खानेपर मांस त्यागका व्रत नष्ट हो जाता है ॥२८॥ ठण्डी काँजीमें एकेन्द्रियादिक जीव उत्पन्न हो जाते हैं, इसलिए अहिंसाव्रतकी रक्षाके लिए कांजीको सदाके लिए तजे ।।९९।। कहा भी है—कांजी में चार पहरके बाद एकेन्द्रिय, छह पहरके बाद द्वीन्द्रिय, आठ पहरके बाद वीन्द्रिय, दश पहरके बाद चतुरिन्द्रिय और बारह पहरके बाद पंचेन्द्रिय जीव उत्पन्न हो जाते हैं, इसमें कोई भी भ्रान्ति नहीं है ।।१६॥ नवनीतमें भी दो मुहर्तके पश्चात् एकेन्द्रियादिक जीव उत्पन्न होने लगते हैं, इसलिए ज्ञानी जन नवनीतके खानेका त्याग करते हैं ॥१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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