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________________ धर्मोपदेशपीयूषवर्ष-श्रावकाचार मक्षिका-वमनं निन्द्यं मधु त्याज्यं बुधोत्तमैः । अनेकजन्तुसकोणं पापराशिप्रदायकम् ॥२९ यन्माक्षिकं जगन्निन्धं दृश्यते कलिलाकृति । तत्याज्यं साधुभिनित्यं जिनेन्द्रवचने रतैः ॥३० तद्भक्षणे महापापं जायते नात्र संशयः । ततिका शरीरेऽपि नैव धार्या वतान्वितैः ॥३१ तथा तद्-व्रतसंशुद्धय जैनतत्त्वविदांवरैः । रसापुष्पकं चापि वर्जनीयं हि सर्वथा ॥३२ वटादिपञ्चकं चापि त्रसजीवशते तम् । उत्तमैः सर्वथा त्याज्यं पापदुःखैककारणम् ॥३३ भिल्लादिनोचलोकानां यद्भक्ष्यं पापकर्मणाम् । तत्साधुभिः सदा त्याज्यं पञ्चोदुम्बरपातकम् ॥३४ तथा पुण्यधनैव्यैः स्ववतप्रतिपालकैः । अज्ञातं सङ्कटे चापि फलं हेयं हि सर्वदा ॥३५ इत्यष्टौ जिनसूत्रण प्रोक्ता मूलगुणाः सदा । श्रावकाणां सुखप्राप्त्यै पालनीया विवेकिभिः ॥३६ अष्टौ मूलगुणान् जगत्त्रयहितान् संसार-विच्छेदकान् यो भव्यः प्रतिपालयत्यनुदिनं सम्यक्त्वपूर्व दृढान् । श्रीमज्जैनमते जगत्त्रयहिते सन्तुष्टचित्तो महान् स श्रीसौख्यलसत्प्रतापविजयं कोर्तिप्रमोदं भजेत् ॥३७ इति धर्मोपदेशपीयूषवर्षनामश्रावकाचारेऽष्टमूलगुणव्यावर्णनो नाम तृतीयोऽधिकारः ॥३॥ के लिए चर्मस्थ जलादिकका त्याग करना चाहिये ॥२८॥ मधु-मक्खियोंका वमन यह मधु अति निन्द्य है, अनेक जन्तुओंसे व्याप्त है और पापराशिका देनेवाला है, उत्तम ज्ञानियोंको इसका त्याग करना चाहिए ॥२९।। जो मधु जगत्में निन्द्य है, मांसकी आकृतिवाला है, उसका जिनेन्द्रवचनमें निरत साधुजनोंको नित्य ही त्याग करना चाहिए ॥३०।। इस मधुके भक्षणमें महापाप होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। इस मधुकी बत्ती भी व्रत-संयुक्त पुरुषोंको वस्ति आदिके लिये शरीरमें भी नहीं धारण करना चाहिए ॥३१॥ तथा मधुव्रतकी संशुद्धिके लिए जैन तत्त्वके जानकार उत्तम पुरुषोंको रससे गीले (भरे हुए) पुष्प आदिका भी सर्वथा त्याग करना चाहिए ॥३२॥ सैकड़ों त्रस जोवोंसे भरे हुए वट, पोपल आदि पंचउदुम्बरफलोंका भी उत्तम पुरुषोंको सर्वथा त्याग करना चाहिए, क्योंकि इनका भक्षण एकमात्र पापोत्पादक दुःखोंका कारण है ।।३३॥ जो पापकर्म करने वाले भील आदि नीच लोगोंके भक्ष्य हैं, ऐसे पापरूप पंच उदुम्बर फल साधुजनोंको सदा त्याज्य हैं ॥३४॥ तथा अपने व्रतोंके प्रतिपालक, पुण्यात्मा भव्य जीवोंको संकटके समयमें भी अज्ञात फलोंका भक्षण सर्वदा ही त्याज्य है ॥३५।। इस प्रकार जिनागमके अनुसार ये आठ मूलगुण श्रावकोंके कहे गये हैं । विवेकी जनोंको सुखकी प्राप्तिके लिए इनका पालन करना चाहिए ॥३६।। जगत्त्रयमें हितकारी, संसारके विनाशक इन आठ मूलगुणोंको जो भव्य पुरुष सम्यक्त्वपूर्वक प्रतिदिन दृढ़ताके साथ पालन करता है, वह जगत्त्रय हितकारी श्रीमज्जैनमतमें सन्तुष्ट चित्त महापुरुष मुक्तिश्रीके . सुखसे विलसित प्रताप विजय कोत्ति और प्रमोदको प्राप्त करता है ॥३७॥ इस प्रकार धर्मोपदेशपीयूषवर्षनामक श्रावकाचारमें अष्टमूलगुणोंका वर्णन करनेवाला यह तोसरा अधिकार समाप्त हुआ ॥३॥ Jain Education International ६० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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