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तृतीयोऽधिकारः
अथ श्रीजिनमानम्य केवलज्ञानसम्पदम् । वक्ष्येऽहं चारुचारित्रं भव्यानां सुगतिप्रदम् ॥१ हिंसाऽनृतं तथाऽस्तेयं मैथुनं च परिग्रहः । एतेषां पञ्च पापानां त्यागो वृत्तं हि संजिनाम् ॥२ इन्द्रनागेन्द्रचन्द्रार्केनरेन्द्रायैः समचितम् । श्रीमज्जिनेन्द्रचन्द्रोक्तं तच्चारित द्विधा मतम् ॥३ मुनि-श्रावकभेदेन भव्यानां तत्सुखप्रदम् । दुःख-दारिद्र-दौर्भाग्य-दुराचार-विनाशनम् ॥४ हिंसादिपञ्चपापानां साकल्येन विवर्जनात् । सकलं मुनिचारि साक्षान्मोक्षप्रसाधनम् ॥५ तभेदाः शतशः सन्ति मूलोत्तरगुणादिभिः । कस्तान माहग्विधो वक्तुं समर्थस्तुच्छबुद्धिभाक् ॥६
सानां पालनं कार्ये पञ्चस्थावर हिंसनात् । गृहिणामणुचारित्रां स्वर्गादिसुखसाधनम् ॥७ तत्र श्रावकधर्मेऽत्र शुद्धसम्यक्त्वशोभिते । आदौ मूलगुणैर्भाव्यं भव्यानां शर्मदायकैः ॥८ मद्य-मांस-मधुत्यागैः सहोदुम्बरपञ्चकैः । अष्टौ मूलगुणाः प्रोक्ता गृहिणां पूर्वसूरिभिः ॥९ सूक्ष्मजन्तुभिराकोणं नीचलोकैः समाश्रितम् । बुद्धिनिर्णाशकं निन्द्यं मद्यं हिंसाकरं त्यजेत् ॥१० यच्च लोके दुराचार-सहस्राणां हि कारणम् । मद्यं कुलक्षयंकारि तत्त्याज्यं सर्वदा बुधैः ॥११ यद्विकल: कुधी प्राणी निपतन् यत्र तत्र च । मलैंलिप्तो जनैस्त्यक्तो दूरतः कुक्कुरायते ॥१२ तन्मद्यं पापकृन्निन्द्यं संसाराम्भोधिपातकम् । नामतोऽपि सदा त्याज्यं सद्धिः स्वहितवाञ्छकैः ॥१३
अब केवलज्ञानरूपी सम्पदावाले श्रीजिनदेवको नमस्कार करके मैं भव्योंको सुगतिके देनेवाले उत्तम चारित्रको कहता हूँ ॥१॥ हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह, इन पाँचों पापोंका त्याग करना सुज्ञानियोंका चारित्र कहलाता है ॥२॥ इन्द्र, नागेन्द्र, चन्द्र, सूर्य और नरेन्द्रादिसे पूजित, यह श्रीमज्जिनेन्द्र चन्द्र-भाषित चारित्र मुनि और श्रीवकके भेदसे दो प्रकारका माना गया है। यह चारित्र भव्योंको उत्तम सुख देनेवाला है, तथा दुःख, दारिद्र, दौर्भाग्य और दुराचारका विनाशक है ॥३-४॥ हिंसादि पाँचों पापोंका सकलरूपसे त्याग करना सकलचारित्र है, यह मुनियोंके होता है और साक्षात् मोक्षका साधक है ॥५।। इस सकलचारित्रके मूल और उत्तर गुणादिकी अपेक्षा सैकड़ों भेद हैं। उन सबको कहनेके लिए मेरे जैसा अल्प बुद्धिका धारक कौन मनुष्य समर्थ है ? कोई भी नहीं है ॥६।। गृहस्थोंके त्रस जीवोंकी हिंसा होनेसे अणुचारित्र (देशसंयम) होता है और वह उनके स्वर्गादि सुखोंका साधक है ॥७॥ शुद्ध सम्यक्त्वसे शोभित उस श्रावकधर्ममें भव्योंको सुख-दायक आठ मूलगुण सर्वप्रथम होना चाहिए ॥८॥ मद्य, मांस और मधुके त्यागके साथ पांच उदुम्बरफलोंको त्याग करना, इन्हें पूर्व आचार्योंने गृहस्थोंके आठ मूलगुण कहा है ॥९॥ सूक्ष्म जन्तुओंसे परिपूरित, नीच लोगोंके द्वारा संसेव्य, बुद्धि-नाशक, हिंसाकारक और निन्द्य मद्य छोड़ना चाहिए ॥१०॥ यह मद्य संसारमें सहस्रों दुराचारोंका कारण है, और कुलका क्षयकारी है, अतः ज्ञानियोंको यह सर्वदा त्याज्य है ॥११॥ इस मद्यके पीनेसे बावला हुआ मनुष्य यहाँ वहाँ गिरता हुआ मल-मूत्रसे लिप्त होता है, मनुष्योंके द्वारा दुरसे ही छोड़ दिया जाता है और कुक्कुरके समान आचरण करता है ॥१२॥ यह मद्य पाप-कारक है, निन्द्य है और
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