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धर्मोपदेशपीयूषवर्ष-श्रावकाचार श्रुतज्ञानं जिनेन्द्रोक्तं लोकालोकप्रकाशकम् । अनादिनिधनं पूतमज्ञानायकारकम् ॥२७ सद्गुरूणां पदाम्भोज-सारसेवासमन्विताः । पञ्चप्रकार भव्याः सारस्वाध्यायलक्षणः ॥२८ आराधयन्ति सद्-भक्त्या स्वस्थचित्तं विधाय च । ज्ञान-विज्ञानसम्पत्ति-यशःकीति समाप्य च ॥२९ सम्यग्ज्ञानप्रसादेन ते भव्याः सौख्यकोटिदम् । केवलज्ञानमुत्पाद्य दृष्टवा सर्व चराचरम् ॥३० जन्ममृत्युजरातङ्क-दुःखशोकादिजितम् । अनन्तानन्तसत्सौख्यं मोक्षं संयान्ति निश्चितम् ॥३१ इति मत्वा जिनेन्द्रोक्तं संज्ञानं सम्पदाकरम् । मनोवाक्कायसंशुद्धया भव्याः सेवन्तु सच्छिये ॥३२ श्रीमज्जिनेन्द्रचन्द्राऽऽस्याज्जातः श्रुतसुधाम्बुधिः । मया तुच्छधिया चापि श्रितः स्तात्केवलश्रियः ॥३३ संज्ञानं जिनभाषितं शुभतरं कुज्ञानविध्वंसनं लोकालोकविलोकनकनयनं सन्देहनिर्णासनम् । जीवाजीवसुतत्त्वभेदकथकं संज्ञानि संजीवनं सर्वप्राणिसुखप्रमोदजनकं कुर्यात्सतां मङ्गलम् ॥३४
इति श्रीधर्मोपदेशपीयूषवर्षनामश्रावकाचारे ज्ञानाराधनव्यावर्णनो द्वितीयोऽधिकारः ॥२॥
के लिए सम्यक् प्रकारसे आराधना करनी चाहिये ॥२६।। यह श्री जिनेन्द्र-कथित श्रुतज्ञान लोकालोकका प्रकाशक है, अनादि निधन है, पवित्र है और अज्ञानका क्षय करनेवाला है ॥२७॥ जो भव्य पुरुष सद्-गुरुओंके पाद-पद्मोंकी सारभूत सेवासे संयुक्त हैं और जो स्वस्थचित्त करके स्वाध्यायके सारभूत पांचों भेदों द्वारा सद्-भक्तिसे श्रुतको आराधना करते हैं, वे भव्य जीव सम्यग्ज्ञानके प्रसादसे ज्ञान-विज्ञानकी प्राप्ति और यशःकीर्तिको पा करके अनन्त सुखोंकी कोटिको देनेवाले केवलज्ञानको उत्पन्न करके तथा सर्व चराचर जगत्को देखकर जन्म, जरा, मरण, रोग, दु.ख और शोकादिसे रहित अनन्तानन्त उत्तम सुखवाले निश्चित रूपसे मोक्षको प्राप्त करते हैं ॥२८-३१।। ऐसा मानकर सम्पदाओंके करनेवाले जिनेन्द्रोक्त सम्यग्ज्ञानकी भव्य जीवोंको उत्तम मुक्तिलक्ष्मीकी प्राप्तिके लिए मन वचन कायकी सम्यक् शुद्धिके साथ सेवा करनी चाहिये ॥३२॥ श्रीमान् जिनेन्द्रचन्द्रके मुखसे उत्पन्न हुआ तथा मुझ तुच्छ बुद्धिके द्वारा आश्रय किया हुआ यह श्रुतामृतसागर मेरे लिए केवलज्ञान-लक्ष्मीका प्राप्त करानेवाला होवे ॥३३॥ यह श्री जिन-भाषित सम्यग्ज्ञान अतिशुभ है, कुज्ञानका विध्वंसक है, लोक और अलोकके अवलोकनके लिए अद्वितीय नयन है, सन्देहका नाशक है, जीव-अजीवादि तत्त्वोंके भेदोंका कथन करनेवाला है, सुज्ञानी जीवोंका संजीवन है और सर्व प्राणियोंको सुख एवं प्रमोदका जनक है, वह सदा सज्जनोंके मंगल करे ॥३४॥
इस प्रकार धर्मोपदेशपीयूषवर्षनामक श्रावकाचारमें ज्ञानाराधनाका
वर्णन करनेवाला दूसरा अधिकार समाप्त हुआ ।।२।।
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