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धर्मोपदेशपीयूषवर्ष-श्रावकाचार तथा सद-दृष्टिभिर्भव्यैस्त्याज्यं गर्वाष्टकं सदा । ज्ञात्वा धर्मस्य सद्धावं निर्मदं जिनभाषितम् ॥३८ ज्ञानं च पूज्यता लोके कुलं जातिबलं तथा। सम्पदा सुतपो रूपं दुधियां गर्वकारणम् ॥३९ मलैः पञ्चादिविंशत्या त्यक्तमेतैर्जगद्धितम् । ज्ञेयं सम्यक्त्वसद्रत्नं भध्यैर्लोकद्वये हितम् ॥४० तथा चोपशमऽऽद्याश्च त्रयो भेदा जिनेश्वरैः । सम्यक्त्वस्य समाख्याताः केवलज्ञानभास्करैः ॥४१ सप्तानां प्रकृतीनां हि शमादुपशमं भवेत् । संक्षयात् क्षायिकं तद्धि तन्मिश्रामिश्रनामकम् ॥४२ व्यवहारेण सम्यक्त्वमिति प्रोक्तं च निश्चयात् । मोह-क्षोभपरित्यक्ता या शुद्धा स्वात्मभावना ॥४३ इति द्विविधसम्यक्त्वं मुक्तिबीजं सुखप्रदम् । यो भव्यो नित्यशः पाति सम्यग्दृष्टिः स एव हि ॥४४
यदुक्तम्संघेओ णिव्वेओ णिवण गव्हा य उवसमो भत्ती । वच्छल्लं अणुकंपा अट्ट गुणा हंति सम्मत्ते ॥१ संवेगः परमा प्रोतिधर्मे धर्मफलेषु च । निर्वेदो देहभोगेषु संसारे च विरक्तता ॥४५ अधिष्ठानं यथा शुद्धं गाढं प्रासादरक्षणम् । तथा ज्ञान-तपोलक्ष्मी-कारणं वर्शनं मतम् ॥४६ सम्यक्त्वरत्नसंयुक्तो भव्यः श्रीजिनक्तिभाक् । दुर्गतेर्बन्धनिर्मुक्तो भाविमुक्तिमावरः ॥४७ श्वभ्र-तिर्यक्कुदेवत्वं स्त्रीत्वं नीचकुलाविकम् । रोगत्वाल्पायुदारिछ नैव प्राप्नोति निश्चयात् ॥४८
चाहिए, क्योंकि वह सर्वव्रत-समूहका आभूषण है ॥३७॥ तथा सम्यग्दृष्टि भव्य जीवोंको 'जिन भाषित धर्मका सद्भाव निर्मदपना है' यह जानकर सदा ही आठों प्रकारके मदोंका त्याग करना चाहिए ॥३८॥ वे आठ मद इस प्रकार हैं-ज्ञानमद, पूजामद, कुलमद, जातिमद, बलमद, सम्पदामद, तपमद और रूपमद । लोकमें ये आठ मद दुबुद्धियोंके गर्वके कारण होते हैं ॥३९॥ इस प्रकार इन उपर्युक्त पच्चीस दोषोंसे रहित, जगत्का हितकारी यह सम्यक्त्वरूप सद्-रत्न भव्य जीवोंको दोनों लोकोंमें हितरूप जानना चाहिए ॥४०॥ केवलज्ञान-भास्करस्वरूप जिनेश्वर देवने सम्यक्त्वके उपशम आदिक तीन भेद कहे हैं ॥४१॥ दर्शनमोहकी मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, तथा चारित्रमोहकी अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे औपशमिक सम्यक्त्व होता है,. इन्हीं सातोंके क्षयसे क्षायिक सम्यक्त्व होता है और इन्हीं सातोंके मिश्रसे (क्षयोपशमसे) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है ॥४२॥ व्यवहारसे ये तीनों भेद सम्यक्त्वके कहे गये हैं। निश्चयसे तो मोह और क्षोभसे रहित जो शुद्ध स्वात्मभावना है, वही निश्चय सम्यक्त्व है ॥४३॥ इस प्रकार मुक्तिका बीज और सुखके देनेवाले दोनों ही प्रकारके सम्यक्त्वको जो भव्य पुरुष नित्य पालन करता है, वही सम्यग्दृष्टि है ॥४४॥ जैसा कि कहा है-सम्यग्दर्शनके होनेपर जीवमें संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा ये आठ गुण प्रकट होते हैं ॥१॥ धर्म और धर्मके फलमें परम प्रीति होना संवेग है। शरीरमें, इन्द्रियोंके भोगोंमें और संसारमें विरक्तिभाव होना निर्वेद है ॥४५॥ (निन्दा आदि शेष गुणोंका स्वरूप सुगम होनेसे ग्रन्थकारने नहीं लिखा है ।) जैसे शुद्ध दृढ़ अधिष्ठान (नीव) भवनका संरक्षक होता है, इसी प्रकार सम्यग्दर्शन ज्ञान और तपोलक्ष्मीका कारण माना गया है ॥४६॥ सम्यक्त्वरूप रत्नसे संयुक्त, श्रीजिनेन्द्रदेवकी भक्ति करनेवाला भव्य जीव दुर्गतिके बन्धसे निर्मुक्त रहता है और भावीकालमें मुक्ति-रमाको वरण करता है ॥४७॥ यह सम्यक्त्वी जीव निश्चयसे नरकगति, तिर्यग्गति, कुदेवत्व (भवनत्रिकत्व) स्त्रीत्व, नीचकुलादिकवाले मनुष्योंमें जन्म, रोगीपना, अल्प आयु और दरिद्रताको नहीं प्राप्त होता है ॥४८॥ किन्तु लोगोंके चित्तोंका अनुरंजन
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