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श्रावकाचार-संग्रह सामिकेषु या भक्तिर्मायादोषविजिता । वात्सल्यं मुनयः प्राहुस्तदेव सुख-साधनम् ॥२४ मिथ्याज्ञानतमस्तोमं निराकृत्य स्वशक्तितः । जैनधर्मे समुद्योतः क्रियते सा प्रभावना ॥२५ गुणैरष्टाभिरेतैश्च संयुक्तं दर्शनं शुभम् । हन्ति कर्माणि सम्पूर्णो मन्त्री वा विषवेदनाम् ॥२६ निःशडिन्तेऽञ्जनश्चौरस्ततोऽनन्तमतिर्मता । उद्दायनस्तृतीये च तुरीये रेवती सती ॥२७ श्रेष्ठी जिनेन्द्रभक्तश्च वारिषेणश्च विष्णुवाक् । वज्रनामा मुनिः पूजां क्रमादष्टाङ्गेष्विताः ॥२८ अष्टौ शङ्कादयो दोषास्तथाऽनायतनानि षट् । मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः ॥२९ कुदेवस्तस्य भक्तश्च कुज्ञानं तस्य पाठकः । कुलिङ्गी सेवकस्तस्य लोकेऽनायतनानि षट् ॥३० मिथ्यावद्भास्करायाऽर्घः स्नानं च ग्रहणादिके । दानं सङ्क्रान्तिके सन्ध्या वह्नि-देह-गृहार्चनम् ॥३१ गोऽश्ववाहन-भूम्यस्त्र-वटवृक्षादिपूजनम् । नागार्चनं तथा नद्यां सागरे स्नानकं तथा ॥३२ पाषाण-सिकताराशेः सत्कारश्च तथा बुधैः । पर्वताऽग्निप्रपातश्च लोकमूढं प्रचक्ष्यते ॥३३ आत्मघातं महापापं विष-शस्त्रादिकैः कृतम् । प्राहुर्बुधा भवेद्यस्मात्संसारे भ्रमणं सदा ।।३४ वरादिवाञ्छया लोभाद्राग-द्वेषादिदूषिताः । सेव्यन्ते देवता मूतैर्देवमूढं तदेव च ॥३५ गहव्यापारसारम्भ-भागिनां भवतिनाम् । पाखण्डिनां कृता सेवा मता पाखण्डिमूढता ॥३६ इति मूढत्रयेणोच्चैः संत्यक्तं शुद्धदर्शनम् ।पालनीयं बुधैनित्यं व्रतसन्दोहभूषणम् ॥३७ होनेवाले पुरुषोंका पुनः उसमें संस्थापन करनेको ज्ञानियोंने उत्तम स्थितीकरण अंग कहा है ।।२३।। सार्मिक जनोंपर मायादोषसे रहित जो भक्ति होती है उसे ही मुनिगण सुखका साधन वात्सल्य अंग कहते हैं ॥२४॥ मिथ्याज्ञानरूप अन्धकारके प्रस्तारको अपनी शक्तिसे निराकरण करके जैनधर्मका जो उद्योत किया जाता है, उसे प्रभावना अंग कहते हैं ॥२५।। इन आठों ही गुणोंसे संयुक्त उत्तम सम्यग्दर्शन जीवके सर्व कर्मोंका नाश कर देता है, जैसे कि सर्व अक्षरोंसे सम्पूर्ण मंत्र विषकी वेदनाका नाश कर देता है ॥२६॥ सम्यग्दर्शनके उपयुक्त अंगोंमेंसे प्रथम निःशंकित अंगमें अंजनचोर, द्वितीय अंगमें अनन्तमती, तृतीय अंगमें उद्दायन, चतुर्थ अंगमें रेवती, पंचम अंगमें जिनेन्द्रभक्त, षष्ठ अंगमें वारिषेण, सप्तम अंगमें विष्णुकुमार और अष्टम अंगमें वज्रकुमार मुनि पूजाको प्राप्त हुए हैं ॥२७-२८॥ शंकादिक आठ दोष, छह अनायतन, तीन मूढ़ता और आठ मद ये सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष हैं ।।२९।। कुदेव, कुदेवका भक्त, कुज्ञान, कुज्ञानका पाठक, कुलिंगी और कुलिंगीका सेवक ये लोकमें छह अनायतन कहलाते हैं ॥३०॥ मिथ्यात्वियोंके समान सूर्यके लिए अर्घ चढ़ाना, चन्द्र-सूर्यादिके ग्रहण-समय स्नान करना, संक्रान्तिमें दान देना, सन्ध्या करना, अग्नि, देह और घरकी पूजा करना; गाय, अश्व, वाहन, भूमि, अस्त्र और वट-वृक्षादिका पूजन करना, नागोंकी पूजा करना, नदी और सागरमें स्नान करना, पाषाण और वालुकाराशिका सत्कार करना, पर्वतसे गिरना, अग्निमें प्रवेश करना इत्यादि कार्य ज्ञानियोंके द्वारा लोक मूढता कही गयी है ।।३१-३३॥ विष-शस्त्रादिसे आत्मघात करनेको ज्ञानियोंने महापाप कहा है, क्योंकि इससे संसारमें सदा परिभ्रमण करना पड़ता है ॥३४॥ लोभसे अथवा वर आदि पानेकी वांछासे राग-द्वेषादिसे दूषित देवोंकी मूढजनोंके द्वारा जो सेवा-उपासना की जाती है, वह देवमूढ़ता है ॥३५॥ गृह-व्यापार और भारम्भ समारम्भ करनेवाले, सांसारिक कार्योंमें प्रवृत्त पाखण्डियोंकी सेवा करना पाखण्डिमूढ़ता मानी गयी है ॥३६॥
इस प्रकार तीन मूढ़ताओंसे सर्वथा रहित शुद्ध सम्यग्दर्शन ज्ञानीजनोंको सदा पालन करना
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