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________________ धर्मोपदेशपीयूषवर्ष-श्रावकाचार प्रथमोऽधिकारः श्रीसर्वशं प्रणम्योच्चैः केवलज्ञानलोचनम् । सद्धर्म देशयाम्येष भव्यानां शमंहेतवे ॥१॥ नमामि भारती जैनी सर्वसन्देहनाशिनीम् । भानुभामिव भव्यानां मनःपद्मविकासिनीम् ॥२ सन्तु ते गुरवो नित्यं ये संसार-सरित्पतौ । रत्नत्रयमहानावा स्व-परेषां च तारकाः ॥३ यो धर्मः सेवितो भक्त्या मनोवाक्काययोगतः । संसाराम्भोधितो भव्यान् सन्धरत्येव सत्पदे ॥४ तं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रां भुवनोत्तमम् । धर्म प्राहुर्गणाधीशाः सुराधीशैः सचितम् ॥५ तत्राधं मुनिभिः प्रोक्तं सम्यग्दर्शनमुत्तमम् । श्रद्धानं सत्यभूताऽऽप्त-तदागम-तपस्विनाम् ॥६ तथा श्रीमज्जिनेन्द्रोक्ते धर्मे हिंसादिजिते । प्रीतिरात्यन्तिको या तत्सम्यक्त्वं सूरिभिर्मतम् ॥७ अष्टाङ्गैः शोभते तच्च सम्यग्दर्शनमुज्ज्वलम् । यथाष्टाङ्गैनित्यं नरत्वं भाति भतले ॥८ सम्यग्दर्शनसद्रत्नं मूढत्रयमदाष्टकात् । वजितं राजते गाढं यथारत्नं मलोज्झितम् ॥९ केवलज्ञानरूप नेत्रवाले श्रीसर्वज्ञदेवको उच्च भक्तिसे प्रणाम करके भव्य जीवोंके सुखके लिए यह मैं ग्रन्थकार सत्-धर्मका उपदेश करता हूँ ॥१॥ मैं जैनी भारती (द्वादशाङ्गरूप वाणी) को नमस्कार करता हूँ जो कि सूर्यकी प्रभाके समान भव्य जीवोंके हृदय-कमलको विकसित करती है और सर्व सन्देहोंका नाश करती है ॥२॥ वे गुरुजन सदा जयवन्त रहें जो कि संसाररूपी सागरमें रत्नत्रयरूपी महानावके द्वारा स्व और परके तारक हैं ॥३॥ मन वचन काय इन तीनों योगोंसे भक्तिके साथ सेवन किया गया जो धर्म संसार-समुद्रसे निकालकर भव्य जीवोंको उत्तम पदमें घर देता है, ऐसे, सुराधोशोंसे पूजित, भुवनोत्तम धर्मको गणाधीश सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप कहते हैं ।।४-५।। उनमेंसे सत्यार्थ आप्त, आगम और तपस्वियोंका श्रद्धान करनेको मुनिजनोंने आद्य उत्तम सम्यग्दर्शन कहा है ॥६।। तथा श्रीमज्जिनेन्द्रदेव-कथित हिंसादि सर्वपापोंसे रहित अहिंसामयी जिनधर्ममें जो आत्यन्तिक प्रीति होती है, उसे आचार्योंने सम्यक्त्व कहा है ।।७।। जैसे भूतलपर दृढ़ आठ अंगोंसे उज्ज्वल सम्यग्दर्शन भी शोभाको प्राप्त होता है ॥ ८॥ जैसे मलसे रहित रत्न शोभायमान होता है, उसी प्रकार तीन मूढ़ताओंसे, तथा आठ मदोंसे रहित सम्यग्दर्शननोट-ब प्रति परिचय — आकार ११४४॥। पत्र संख्या ३२ । प्रतिपत्र पंक्ति संख्या ८ । प्रति पंक्ति अक्षर संख्या ३३-३४ । ___इस प्रतिके अन्तिम पत्रमें प्रशस्तिके..... श्रीमल्लि.........."तकका हो अंश है। इसके आगेका अंश आगेके पत्रमें रहा होगा और उसीमें लेखकका नाम और लेखन-काल भी रहा होगा। पर उसके न होनेसे यह सब अज्ञात है। फिर भी इतना तो निश्चित ही कहा जा सकता है कि यह प्रति कमसे कम ३०० वर्ष पुरानी अवश्य है और बहुत शुद्ध है। 'अ' प्रतिमें सर्वत्र 'व' के स्थान पर 'ब' और प्रायः 'स' के स्थान पर 'श' या 'श' के स्थान पर 'स' पाया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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