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________________ ग्रन्थकार-प्रशस्तिः विख्यातोऽस्ति समस्तलोकवलये श्रीमूलसंघोऽनघस्तत्राभूद्विनयेन्दुरतमतिः श्रीसागरेन्दोः सुतः। तच्छिष्योऽजनि मोहभूभृदशनिस्त्रोलोक्यकोत्तिर्मुनिस्तच्छिष्यो गुणभूषणः समभवत्स्याद्वादचूडामणिः।। तेनायं भव्यचित्तादिवल्लभाख्यः सतां कृते । सागारधर्मो विहितः स्थेयादापृथिवीतले ॥१५२ अस्त्यत्र वंशः पुरपाटसंज्ञः समस्तपृथ्वीपतिमाननीयः । व्यक्त्वा स्वकीयां सुरलोकलक्ष्मी देवा अपीच्छन्ति हि यत्र जन्म ॥१५३ तत्र प्रसिद्धोऽजनि कामदेवः पत्नी च तस्याजनि नाम देवी। पुत्रौ तयो|मन-लक्ष्मणाख्यो बभूवतू राघवलक्ष्मणाविव ॥१५४ रत्नं रत्नखनेः शशी जलनिधेरात्मोद्भवः श्रीपतेस्तद्वज्जोमनतो बभूव तनुज. श्रीनेमिदेवाह्वयः। यो बाल्येऽपि महानुभावचरितः सज्जैनमार्गे रतः शान्तः श्रीगुणभूषणक्रमनतः सम्यक्त्वचूडाङ्कितः ॥ यस्त्यागेन जिगाय कर्णनृपति न्यायेन वाचस्पति नैर्मल्येन निशापति नगपति सत्स्थैर्यभावेन च । गाम्भीर्येण सरित्पति सुरपति सद्धर्मसद्भावनात् सः श्रीमद्-गुणभूषणोन्नतिनतो नेमिश्चिरं नन्दतु ॥ श्रीमद्वोरजिनेशपादकमले चेतः षडंहिः सदा हेयादेयविचारबोधनिपुणा बुद्धिश्च यस्यात्मनि । दानं श्रीकरकुड्मले गुणततिदेहे शिरस्युन्नतिः रत्नानां त्रितयं हृदि स्थितमसौ नेमिश्चिरं नन्दतु ॥१५७ ग्रन्थकारकी प्रशस्ति इस समस्त भूमण्डलमें निर्दोष मूलसंघ अति प्रसिद्ध है। उस मूलसंघमें अद्भत बुद्धिशाली विनयचन्द्र हुए जो कि श्री सागरचन्द्रके पुत्र थे। उनके शिष्य त्रैलोक्यकोत्ति मुनि हुए, जो मोहरूप पर्वतके भेदनेके लिए वज्रतुल्य हैं, त्रैलोक्यमें जिनकी कीति व्याप्त है। उनके शिष्य गुणभूषण हुए, जो कि स्याद्वादविद्याके चूड़ामणि हैं ।।१५१।। उन्होंने सज्जनोंके उपकारके लिए यह भव्यजनोंके चित्तको प्यारा भव्यजन चित्तवल्लभ नामवाला सागारधर्म प्रतिपादन किया, जो यह इस भूतलपर चिरकाल तक स्थिर रहे ॥१५२॥ इस भारतवर्षमें पुरपाट नामका एक वंश है, जो कि समस्त राजाओंके द्वारा माननीय है। वह वंश इतना विशुद्ध है कि देवगण भी अपनी स्वर्गलोककी लक्ष्मीको छोड़कर जिसमें जन्म लेनेकी इच्छा करते हैं ॥१५३।। इस पुरपाट वंशमें एक प्रसिद्ध कामदेव सेठ हुए। उनकी पत्नीका नाम देवी थी। उन दोनोंके राम-लक्ष्मणके समान तेजस्वी जोमन और लक्ष्मण नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए ॥१५४॥ जिस प्रकार रत्नोंकी खानिसे रत्न उत्पन्न होता है; क्षीरसागरसे जैसे चन्द्रमा उत्पन्न हुआ और श्रीकृष्णसे जैसे प्रद्युम्न उत्पन्न हुए, उसी प्रकार जोमनसे श्रीनेमिदेव नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। जो बाल्यावस्थामें भी महापुरुषोंके समान आचरणवाला, सत्य जैनमार्गमें निरत, शान्त सम्यक्त्वचूडामणि और श्रीगुणभूषणके चरणोंमें नम्रीभूत है ॥१५५।। जिसने अपने त्याग (दान) से कर्ण राजाको जीत लिया, न्यायसे बृहस्पतिको जीत लिया, अपनी निर्मलतासे चन्द्रमाको, स्थिरतासे सुमेरुको, गम्भीरतासे समुद्रको और सद्धर्मकी भावनासे देवोंके स्वामी इन्द्रको जीत लिया है, और जो श्रीमद्-गुणभूषणाचार्यकी उन्नतिमें निरत एवं चरणोंमें विनत हैं, वह नेमिदेव चिरकाल तक आनन्दित रहें ॥१५६।। जो श्रीमान् वीर जिनेश्वरके चरणकमलोंमें भ्रमर जैसा अनुरक्त चित्त हो रहा है, जिसकी आत्मामें सदा हेय और उपादेयका विचार करने में निपुण बुद्धि विद्यमान है, जिसका श्रीकर-कमल सदा दानमें संलग्न है, जिसके देहमें गुणोंकी पंक्ति विद्यमान है, शिर सद्गुणोंसे सदा उन्नत रहता है, और जिसके हृदयमें रत्नत्रय धर्म सदा अवस्थित है, वह नेमिदेव चिरकाल तक आनन्दित रहे ॥१५७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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