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________________ गुणभूषण-श्रावकाचार आकाशस्फटिकाभासः प्रातिहार्याष्टकान्वितः । सर्वामरैः सुसंसेव्योऽप्यनन्तगुणलक्षितः ॥१३२ नभोमार्गेऽथवोक्तेन वजितं क्षीरनीरधेः । मध्ये शशाङ्कसङ्काशनोरे जातस्थितो जिनः ॥१३३ श्रीराम्भोधिः क्षीरधारा-शुभ्राशेषाङ्गसङ्गमः । एवं यच्चिन्त्यते तत्स्याद् ध्यानं रूपस्थनामकम् ॥ गन्धवर्णरसस्पर्शवजितं बोघट्टङ्मयम् । यच्चिन्त्यतेर्हद्रूपं तद ध्यानं रूपवजितम् ॥१३५ इत्येषा षड्विधा पूजा यथाशक्ति स्वभक्तितः । यथाविधिविधातव्या प्रयतैर्देशसंयतैः ॥१३६ कुस्तुम्बरखण्डमा यो निर्माप्य जिनालयम् । स्थापयेत् प्रतिमां स स्यात् त्रैलोक्यस्तुतिगोचरः ॥१३७ यस्तु निर्मापयेत्तुङ्ग जिनं चैत्यं मनोहरग् । वक्तुं तस्य फलं शक्तः कथं सर्वविदोऽपरः ॥१३८ जिनानां पूजनात्पूज्यः स्तुत्यः स्तोत्राच्च वन्दनात् । वन्द्यो ध्यानाद्भवेद् ध्येयो जगतां त्रितये सुधीः॥ इत्येकादशसागारसच्चारित्रं यथागमम् । यथोक्तं पालयेद् यस्तु स पायाज्जगतां त्रयम् ॥१४० तपोनिष्ठः कनिष्ठोऽपि वरिष्ठो गुणभूषणः । तपोऽनिष्ठः वरिष्ठोऽपि कनिष्ठोऽगुणभूषणः ॥१४१ ज्ञाने सत्यपि चारित्रं नो जातु यदि जायते । निष्फलं तस्य विज्ञानं दुर्भगाभरणं यथा ॥१४२ आगामिकर्मसंरोधि ज्ञानं चारित्रजितम् । क्षपयेत्कर्म सम्यक्त्वं शश्वत्पुष्णाति तदद्वयम् ॥१४३ आकाश और स्फटिक मणिके समान स्वच्छ आभावाले, आठ प्रातिहार्योंसे संयुक्त, सर्व देवोंसे सुसेवित और अनन्त गुणोंसे उपलक्षित ऐसे जिन देवको आकाशके मध्य अवस्थित चिन्तवन करना भी रूपस्थ ध्यान है। क्षीरसागरके मध्य चन्द्र-तुल्य निर्मल जलमें (कमलासनपर) यथाजातरूपसे अवस्थित और जिनका क्षीरसागरको क्षीरधाराके प्रवाहसे सर्वाङ्ग शुभ्ररूपको धारण कर रहा है, ऐसे जिनेन्द्रदेवका जो चिन्तवन किया जाता है, यह भी रूपस्थ नामका ध्यान है ॥१३२-१३४।। अब रूपातीत ध्यानका वर्णन करते हैं—गन्ध, वर्ण, रस और स्पर्शसे रहित केवल ज्ञान-दर्शनमय अरहंतके रूपका जो चिन्तवन किया जाता है, वह रूप-रहित रूपातीत ध्यान कहलाता है ॥१३५।। ऐसी यह छह प्रकारकी पूजा यथाशक्ति अपनी भक्तिके अनुसार प्रयत्नशील देशसंयमी श्रावकोंको विधिपूर्वक नित्य करनी चाहिये ॥१३६।। जो पुरुष कुस्तुम्बर (कुलथी) के खण्ड प्रमाण जिनालयको बनवाकर उसमें सरसोंके बराबर प्रतिमाको स्थापित करता है, वह तीन लोकके जीवोंकी स्तुतिका विषय होता है ॥१३७।। फिर जो अति उन्नत जिनालय बनवा करके उसमें विशाल मनोहर प्रतिमाको स्थापित करता है, उसके पुण्यका फल तो सर्वज्ञदेवके सिवाय और दूसरा कौन पुरुष कहनेके लिए समर्थ हो सकता है ॥१३८॥ जिनराजोंका पूजन करनेसे ज्ञानी पुरुष तीन जगत्में पूज्य होता है, स्तुति करनेसे स्तुत्य होता है, वन्दना करनेसे वन्द्य होता है और ध्यान करनेसे ध्येय होता है, अर्थात् अन्य पुरुषोंके द्वारा ध्याया जाता है ॥१३९। इस प्रकार श्रावकोंके ग्यारहपदोंके सच्चारित्रको मैंने आगमके अनुसार जैसा कहा है, उसे जो गृहस्थ पालन करेगा, वह तीनों लोकोंके जीवोंकी रक्षा करेगा, अर्थात् त्रिलोकीनाथ होगा ॥१४०।। तपोनिष्ठ कनिष्ठ भी पुरुष वरिष्ठ और गुणभूषण है किन्तु जो तपमें निष्ठ नहीं है, वह वरिष्ठ होकर भी कनिष्ठ हैं और गुणभूषण नहीं है ॥१४१॥ मनुष्यमें ज्ञानके होनेपर भी यदि चारित्र नहीं है, तो उसका वह ज्ञान विधवा स्त्रीके आभूषण धारण करनेके समान निष्फल है ॥१४२॥ चारित्र यक्त ज्ञान आगामी कर्म-बन्धको रोकता है। और यदि ये दोनों सम्यक्त्व-सहित हों तो वह कर्मका क्षय करता है, क्योंकि सम्यक्त्व सदा ही ज्ञान और चारित्रको पुष्ट करता है ।।१४३॥ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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