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गुणभूषण-श्रावकाचार
चेतनं वाऽचेतनं वा मिश्रद्रव्यमिति त्रिधा । साक्षाज्जिनादयो द्रव्यं चेतनाख्यं तदुच्यते ॥ ११२ तद्वपुर्द्रव्यं शास्त्रं वाऽचित्तं मिश्रं तु तद्वयम् । तस्य पूजनतो द्रव्यपूजनं च त्रिषा मतम् ॥११३ जन्मनिःक्रमणज्ञानोत्पत्तिक्षेत्रे जिनेशिनाम् । निषिध्यास्वपि कर्तव्या क्षेत्रे पूजा यथाविधि ॥ ११४ कल्याणपञ्चकोत्पत्तिर्यस्मिन्नह्नि जिनेशिनाम् । तदह्नि स्थापना पूजाऽवश्यं कार्या सुभक्तितः ११५ पर्वाह्निकेऽन्यस्मिन्नपि भक्त्या स्वशक्तितः । महामहविधानं यतत्कालाचंनमुच्यते ॥११६ स्मृत्वाऽनन्तगुणोपेतं जिनं सन्ध्यात्रयेऽर्चयेत् । वन्दना क्रियते भक्त्या तद्भावार्चनमुच्यते ॥११७ जाप्यः पञ्चपदानां वा स्तवनं वा जिनेशिनः । क्रियते यद्यथाशक्तिस्तद्वा भावार्चनं मतम् ॥ ११८ पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपर्वाजतम् । यद् ध्यानं ध्यायते यद्वा भावपूजेति सम्मतम् ॥ ११९ शुद्धस्फटिकसङ्काशं प्रातिहार्याष्टकान्वितम् । यद् ध्यायतेऽर्हतो रूपं तद्ध्यानं पिण्डसंज्ञकम् ॥१२० अधोभागमधोलोकं मध्यांशं मध्यमं जगत् । नाभि प्रकल्पयेन्मेरुं स्वर्गाणां स्कन्धमवंतः ॥ १२१ ग्रैवेयका स्वग्रीवायां हन्वामनुदिशानपि । विजयाद्यान्मुखं पञ्च सिद्धस्थानं ललाटके ॥१२२ मूनि लोकाग्रमित्येवं लोकत्रितयसन्निभम् । चिन्तनं यत्स्वदेहस्थं पिण्डस्थं तदपि स्मृतम् ॥ १२३ एकाक्षरादिकं मन्त्रमुच्चार्य परमेष्ठिनाम् । क्रमस्य चिन्तनं यत्तत्पदस्थध्यानसंज्ञकम् ॥ १२४ अकारपूर्वक शून्यं रेफानुस्वारपूर्वकम् । पापान्धकारनिर्नाशं ध्यातव्यं तु सितप्रभम् ॥१२५
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द्रव्योंसे पूजन करनेको द्रव्यपूजा कहते हैं । अथवा पंचपरमेष्ठीके शरीरादिरूप द्रव्यकी जो पूजा की जाती है; वह भी द्रव्यपूजा मानी गयी है ॥ १११ ॥ पूज्य द्रव्य तीन प्रकारका हैचेतन, अचेतन और मिश्रद्रव्य । साक्षात् तीर्थंकर जिनेन्द्र आदिक चेतन द्रव्य कहे जाते हैं ॥ ११२ ॥ तीर्थंकरादिका शरीर और शास्त्र अचित्तद्रव्य हैं । चेतन और अचेतन इन दोनोंसे युक्त समवशरणमें विराजमान तीर्थंकरादिक मिश्र द्रव्य हैं | | ११३ || इन तीनों प्रकारके द्रव्योंका पूजन करना द्रव्यपूजा है । तीर्थंकरोंके जन्मस्थान, दीक्षास्थान, केवलज्ञान उत्पन्न होनेके क्षेत्र और उनके शरीर त्यागके स्थान निषिध्याओंमें - इन क्षेत्रों में यथाविधि पूजा करना चाहिए। यह क्षेत्र पूजा है ॥ ११४ ॥ तीर्थकरोंके पाँचों कल्याणकों की उत्पत्ति जिस दिन हुई है उस दिन उस कल्याण की स्थापना करके भक्ति के साथ अवश्य पूजा करनी चाहिए | | ११५ ।। तथा नित्यपर्व अष्टमी - चतुर्दशी और नैमित्तिक पर्व अष्टाह्निकामें, तथा दशलक्षणादि अन्य पर्वों में भक्ति के साथ अपनी शक्तिके अनुसार जो महामह आदि पूजाएँ की जाती हैं, वह सब कालपूजा कहलाती हैं | | ११६ || तीनों सन्ध्याओंमें अनन्तगुण संयुक्त जिनदेवकी भक्ति से जो पूजा और वन्दना की जाती है वह भावपूजा कही जाती है ॥ ११७ ॥ तथा पंचनमस्कार पदोंका जाप करना और तीर्थंकरादि जिनराजोंका यथाशक्ति जो स्तवन आदि किया जाता है वह भी भावपूजन माना गया है ||११८|| तथा पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत रूप जो ध्यान किया जाता है, वह भी भावपूजन माना गया है ॥ ११९ ॥ | अब पिण्डस्थ ध्यानका वर्णन करते हैं - शुद्ध स्फटिकमणिके सदृश निर्मल और आठ प्रातिहार्योंसे युक्त अरहन्तदेवके रूपका जो ध्यान किया जाता है, वह विण्डस्थ नामका ध्यान है ॥ १२०॥ अथवा अपने शरीर के अधोभागको अधोलोक, मध्यभागको मध्यलोक और नाभिके स्थानपर मेरुपर्वतकी कल्पना करे । नाभिसे ऊपरी भागको ऊर्ध्व लोक मानकर कन्धेतकके भागमें स्वर्गोंकी, कन्धेसे ऊपर अपनी ग्रीवामें ग्रैवेयककी, ठोडीके स्थानपर अनुदिशकी, मुखस्थानपर विजयादिक पाँच अनुत्तर विमानकी, ललाट पर सिद्ध स्थानकी और मस्तक के ऊपर लोकके अग्र भागकी कल्पना करे । इस प्रकार अपने देहमें स्थित तीन लोकसदृश आकारका जो चिन्तवन किया जाता है, वह भी पिण्डस्थ ध्यान माना गया है ।। १२१-१२३॥ अब अपदस्थध्यानका वर्णन करते हैं—पंचपरमेष्ठियोंके एक अक्षररूप 'ॐ', असि आ उ सा आदि मन्त्रों को उच्चारण कर उनके चरण-कमलका चिन्तवन करना सो पदस्थ नामका ध्यान है ॥ १२४॥ जिस पदमें 'अ' कार पूर्व अक्षर है और शून्य अर्थात् 'ह' यह रेफ और अनुस्वार सहित
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