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तीसरा उद्देश
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शुभप्रवृत्तिरूपा या निवृत्तिरशुभाद् भवेत् । तच्चारित्रं द्विधा प्रोक्तं सागार-विरताश्रितम् ॥१ दार्शनिकश्च वतिकः सामयिकी प्रोषधोपवासी च । तस्मात्सचित्तविरतो दिवा सदा ब्रह्मचारी च ॥२ स्यादारम्भाद्विरतः परिग्रहादनुमतात्तयोद्दिष्टात् । इत्येकादश भेदाः सागारा देशयत्याख्याः ॥३ उदुम्बराणि पञ्चैव सप्तव्यसनान्यपि । वर्जयेद्यः स सागारो भवेद्दार्शनिकायः ॥४ प्रत्यक्षविषयैः स्थूलैः सूक्ष्मैश्चागमगोचरैः । सर्वैराकीर्णमध्यानि कृपालुस्तानि वर्जयेत् ॥५ चूतमद्यामिषं वेश्याऽखेटचौर्यपराङ्गन्नाः । सप्तवैतानि पापानि व्यसनानि त्यजेत्सुधीः ॥६ असत्यस्य निधानं यत्कृत्याकृत्यविजितम् । दुर्गतेवर्त्म तत्याज्यं द्यूतं क्रोधादिवर्धनम् ॥७ यदुत्पद्य मृता प्राणिदेहजोन्मादशक्तिकम् । सर्वावधपुरश्चार्यनिन्द्यं मद्यं भजेच्च कः ॥८ जातं यन्मक्षिकागर्भसम्भूताण्डकपीडनात् । तत्कथं कलिलप्रायं सेव्यं दुर्गतिदं मधु ॥९ प्राणिदेहविषातोत्थमनेककृमिसङ्कलम् । पूतिगन्धं च बीभत्सं त्याज्यं मांसं कृपालुना ॥१० मद्यमांससमायुक्ताः कुक्कुरपात्रसन्निभाः । जनावस्करसादृश्या वेश्या द्वारं च दुर्गतेः ॥११
जो शुभ क्रियाओंमें प्रवृत्ति और अशुभ कार्योंसे निवृत्ति है, वह चारित्र कहलाता है। वह चारित्र दो प्रकारका है-सागार-आश्रित और विरत-(अनगार-) आश्रित ॥१।। सागार-आश्रित चारित्रके ग्यारह भेद हैं-दार्शनिक, वतिक, सामयिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, दिवा ब्रह्मचारी, सदा ब्रह्मचारी, आरम्भविरत, परिग्रहविरत, अनुमतिविरत और उद्दिष्टविरत। ये सब देशति, देश संयमी, श्रावक और उपासक नाम वाले जीव सागार कहलाते हैं ॥२-३॥ जो जीव पांचों उदुम्बर फलोंको और सातों ही व्यसनोंका त्याग करे, वह दार्शनिक नामका श्रावक है ॥४॥ वट, पीपल आदि पांचों ही उदुम्बर फल प्रत्यक्ष दृष्टि गोचर होनेवाले स्थूल त्रसजीवोंसे, तथा आगम-गोचर असंख्य सूक्ष्म जीवोंसे भरे हुए हैं, अतः दयालु पुरुषोंको उनका त्याग करना चाहिए ॥५॥ जूआ, मद्य, मांस, वेश्या, आखेट (शिकार), चोरी और परस्त्रीका सेवन करना, इन सातों ही पापोंको व्यसन कहते हैं । ज्ञानी जनोंको इनका त्याग करना चाहिए ॥६॥ जूआ खेलना असत्यका भण्डार है, कर्तव्य-अकर्तव्यके ज्ञानसे रहित है, दुर्गतिका मार्ग है और क्रोधादिकषायोंको बढ़ानेवाला है, इसलिए जूआ खेलनेका त्याग करना चाहिए ॥७॥ जिसमें प्राणी सदा उत्पन्न होते मरते रहते हैं, जो प्राणियोंके उन्मादको बढ़ानेवाला है, सर्व पापोंका अग्रगामी है और आर्य पुरुषोंके द्वारा निन्दनीय है, ऐसे मद्य (मदिरा) को कौन बुद्धिमान् पुरुष सेवन करेगा ? कोई भी नहीं ||८|| जो मधु-मक्षिकाओंके गर्भसे उत्पन्न हुए अण्डोंके पीड़नसे उत्पन्न होता है, मांसके सदृश दिखाई देता है, और जिसका सेवन दुर्गतियोंको देनेवाला है, ऐसा मधु कैसे सेवन योग्य हो सकता है ? अर्थात् ऐसा मधु सेवनवे योग्य नहीं है ।।९।। जो जीवोंके देहका विघात करके उत्पन्न होता है, अनेक कृमियोंसे परिपूर्ण है, दुर्गन्धमय है और देखने में बीभत्स है, ऐसा मांस दयालु जनोंको त्यागनेके योग्य है ॥१०॥ जो वेश्याएंन्तर मद्य-मांसका सेवन करती रहती हैं, कुत्तों के द्वारा चाटे जाने वाले पत्रके सदृश हैं और मनुष्योंके -मूत्र करनेके ..रो मा हैं, ऐसी वेश्याएँ दुर्गतिको
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