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गुणभूषण-श्रावकाचार
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विनोद्योतं यथा न स्यात्पुमान् सद्-गतिभाजनम् । विना ज्ञानं तथा न स्यात् पुमान् सद्-गतिभाजनम् ।।३५ न तस्य तत्त्वाप्तिरिहास्ति दूरे न कर्मनाशोऽप्यधुना समर्थः ।
न मोक्षलक्ष्मीरनवाप्यभावः स्यादभ्रसंविद-गुणभूषणो यः ॥३६ बुद्धिनिष्ठः कनिष्ठोऽपि वरिष्ठो गुणभूषणः । बुद्धयनिष्ठो वरिष्ठोऽपि कनिष्ठोऽगुणभूषणः ॥३७
इति श्रीगुणभूषणाचायं-विरचिते भव्यजनचित्तवल्लभाभिधानश्रावकाचारे
साधुनेमिदेवनामाङ्किते सम्यग्ज्ञानवर्णनो नाम द्वितीयोद्देशः ।।२।।
जैसे प्रकाशके विना मनुष्य अभीष्ट स्थानको जाननेका पात्र नहीं है, उसी प्रकार ज्ञानके विना पुरुष सद्-गतिका भाजन नहीं हो सकता है ॥३५।। जो पुरुष निर्मल सम्यग्ज्ञानगुणसे विभूषित है, उसको तत्त्वोंकी प्राप्ति होना इस लोक में दूर नहीं है, और न कर्मोंका नाश होना दूर है, प्रत्युत वह इसी भवमें कर्मनाश करनेके लिए समर्थ है । सम्यग्ज्ञानी पुरुषके लिए मोक्षलक्ष्मी भी अप्राप्य नहीं है, अर्थात् वह शीघ्र ही निश्चयसे प्राप्त होती है ॥३६॥ सम्यग्ज्ञानसे युक्त कनिष्ठ (लघु) भी पुरुष वरिष्ठ है और गुणोंसे आभूषित है। किन्तु सम्यग्ज्ञानसे रहित श्रेष्ठ भी पुरुष कनिष्ठ है और उत्तम गुणोंसे रहित है ॥३७||
इस प्रकार श्रीगुणभद्राचार्य-विरचित भव्यजनचित्तवल्लभ नामवाले और साह नेमिदेवके नामसे
अंकित इस श्रावकाचारमें सम्यग्ज्ञानका वर्णन करनेवाला दूसरा उद्देश समाप्त हुआ ॥२॥
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