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________________ गुणभूषण-श्रावकाचार ४३९ कुलजातितपोज्ञार्था वीर्यश्वर्यवपुर्मदाः । अष्टौ ते दूषका दृष्टस्तस्मात्याज्याः प्रयत्नतः ॥२३ धर्मबुद्धया गिरेरग्नौ भृङ्गो पातश्च भेदनम् । कुन्तायनिजदेहस्य मज्जनं सागरादिषु ॥२४ देहलीगेहवाज्यर्चा संक्रान्तिग्रहणादिषु । दानमित्यादि लोकानां जनमूढमनेकधा ॥२५ वरमन्त्रौषधाप्त्यर्थं लुब्धपाखण्डिसेवनम् । देवपाखण्डिमूढा वेत्येते स्युर्दृष्टिदूषकाः ॥२६ कुदेवागमचारित्रे तदाधारेऽप्युपासना । षडनायतनानि स्युर्दृप्तिदूषीण्यतस्त्यजेत् ॥२७ शङ्का काङ्क्षा जुगुप्सा च मूढतानुपगृहनम् । अस्थिरीकरणं चैवावात्सल्यं चाप्रभावना ॥२८ अष्टौ दोषा भवन्त्येते सम्यक्त्वक्षातिकारणम् । विपरीता गुणास्त्वेते दृग्विशुद्धिविधायिनः ॥२९ अर्हन् देवो भवेन्नो वा तत्त्वमेतत्किमन्यथा । व्रतमेतत्किमन्यद्वेत्येषा शङ्का प्रकाशिता ॥३० निर्दोषोऽर्हन्नेव देवस्तत्वं तत्प्रतिपादितम् । व्रतं तदुक्तमेवेति निःशङ्कोऽञ्जनवद्भवेत् ॥३१ सम्यक्त्वस्य व्रतस्यापि माहात्म्यं यदि विद्यते । देवो यक्षोऽमरः स्वामी मे स्यादाकाङ्क्षणां त्यजेत् ॥ एकैवेयं यतो दृष्टिनिष्काक्षेष्टफलप्रदा। भजेनिःकाक्षितां तस्माद्यथानन्तमती श्रुता ॥३३ दृष्ट्वातिम्लानबीभत्सं रोगघ्रातं वपुः सताम् । या तन्वादिविनिन्दा स्यात्सा जुगुप्सेति कथ्यते ॥३४ जरारोगादिक्लिष्टानां सतां भक्त्या स्वशक्तितः । वैयावृत्त्यं निर्जुगुप्सा तामौदायनवद्धरेत् ॥३५ आठ मद, तीन मूढता,छह अनायतन, और शंकादिक आठ दोष, ये पच्चीस दोष सम्यग्दर्शनको दूषित करते हैं ॥२२॥ कुलमद, जातिमद, तपमद, ज्ञानमद, धनमद, वीर्यमद, ऐश्वर्यमद और शरीरमद; ये आठों ही मद सम्यक्त्वके. दूषक हैं, इसलिए इन्हें प्रयत्नसे छोड़ना चाहिए ॥२३॥ धर्मबुद्धिसे पर्वतसे गिरना, अग्निमें गिरना, भृगुपात करना, भाले आदिसे अपने शरीरको भेदना, समुद्र आदिमें स्नान करना, देहली घर और घोड़ेकी पूजा करना, संक्रान्ति और सूर्य-ग्रहणादिके समय दान देना, इत्यादि अनेक प्रकारकी लोकमूढ़ता या जनमूढ़ता है ।।२४-२५॥ वर पानेको, मंत्र-सिद्धिकी और औषधि बनानेकी इच्छासे रागी देवी देवोंको पूजना देवमूढ़ता हैं, तथा पाखंडी गुरुओंकी सेवा करना पाखंडिमूढ़ता है। ये उपर्युक्त तीनों ही मूढ़ताएं सम्यक्त्वकी दूषक हैं ॥२६॥ कुदेव, कुशास्त्र और कुचारित्रकी तथा इनके धारकोंकी उपासना करना सो छह अनायतन (अधर्मके स्थान) हैं । ये सभी सम्यग्दर्शनको दूषित करती हैं, अत: इनका त्याग करना चाहिए ॥२७॥ शंका, कांक्षा, जुगुप्सा, मूढता, अनुपगृहन, अस्थिरीकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना ये आठ दोष सम्यग्दर्शनकी अशुद्धिके कारण हैं और इनके विपरीत निःशंकिता, नि:कांक्षिता, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ गुण सम्यग्दर्शनकी शुद्धि करनेवाले हैं ॥२८-२९॥ अरहन्त सच्चे देव हैं, अथवा नहीं ? क्या यह तत्व यथार्थ हैं, अथवा नहीं? यही व्रत है अथवा अन्य व्रत है, इस प्रकारको अप्रतीतिको शंकादोष कहा गया है ॥३०॥ निर्दोष अर्हन ही सच्चे देव हैं, उनका प्रतिपादित तत्त्व ही सत्य है और उनका कहा व्रत ही सच्चा व्रत है। इस प्रकारके दृढ़ श्रद्धावाला पुरुष अंजनचोरके समान निःशंक गुणका धारक होता है ।।३१।। यदि सम्यक्त्वका और व्रतका कुछ भी माहात्म्य है, तो मैं देव, यक्ष हो जाऊं, अथवा मेरा स्वामी देव हो जाय, इस प्रकारकी आकांक्षाको छोड़े ॥३२॥ यही एक निःकांक्षित दृष्टि इष्ट फलकी देनेवाली है। इसलिए इस निःकांक्षिताको धारण करे! जैसी कि अनन्तमती निःकांक्षित गुणको धारण करनेवाली सुनी जाती है ॥३३।। सन्तजनोंके अतिमलिन, कुरूप और रोगाक्रान्त शरीरको देखकर जो उनके शरीरादिकी निन्दा की जाती है; वह जुगुप्सा कही जाती है ॥३४॥ किन्तु जरा रोग आदिसे आक्रान्त सन्तोंको भक्तिके साथ अपनी शक्तिके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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