SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 471
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकाचार-संग्रह 1 जीवाजीवास्रवा बन्धसंवरौ निर्जरा तथा । मोक्षश्चैतानि सप्तैव तत्त्वानि स्युजिनागमे ॥११ चेतनालक्षणो जीवः कर्ता भोक्ता तनुप्रमः । अनादिनिधनोऽमूर्त्तः स च सिद्धः प्रमाणतः ॥१२ मूर्त्तामूर्त्तभिदा द्वेधा जीवो मूर्तोऽथ पुद्गलः । स्कन्धदेशप्रदेशाविभागिभेदाच्चतुविधः ॥ १३ धर्माधर्मनभः कालास्त्वमूर्त्ता शाश्वताक्रियाः । यानस्थानावकाशार्थवर्तनागुणलक्षणाः ॥ १४ मुरुप गौणश्च कालोऽत्र स्यान्मुख्योऽणुस्वभावकः । मुख्य हेतुरतीतादिरूपो गौणः स उच्यते ॥ १५ मिथ्यात्वादिचतुष्केन जिनपूजादिना च यत् । कर्माशुभं शुभं जीवमासदेत्स्यात्स आस्रवः ॥१६ स्यादन्योन्यप्रदेशानां प्रवेशो जीवकर्मणोः । स बन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभावादिस्वभावकः ॥१७ सम्यक्त्व- व्रत- कोपादिनिग्रहाद् योगरोधतः । कर्मास्रवनिरोधो यः स्यात्संवरः स उच्यते ॥ १८ सविपाकाविपाकाथ निर्जरा स्याद् द्विधाऽऽदिमा । संसारे सर्वजीवानां द्वितीया सुतपस्विनाम् ॥१९ निर्जरा-संवराभ्यां यो विश्वकर्मक्षयो भवेत् । स मोक्ष इह विज्ञेयो भन्यैर्ज्ञानसुखात्मकः ॥२० प्रमाणनय निक्षेपैरर्थव्यञ्जनपर्यंयैः । परिणामीनि तत्वानि श्रद्धेयान्यवबुध्य च ॥ २१ अष्टौ मदास्त्रयो मूढास्तथानायतनादि षट् । अष्टौ शङ्कादयश्चंते दोषाः सम्यक्त्वदूषकाः ॥२२ जाता है, क्योंकि द्वेषसे और सरागभावसे वक्तापनेका अभाव होने के कारण उस वीतरागी वक्ता वचनरूप आगमके प्रमाणता मानी जाती है ||१०|| तत्त्वोंका वर्णन - जीव अजीव आस्रव बन्ध संवर निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व ही जिनागममें कहे गये हैं ||११|| इनमेंसे जीवका लक्षण चेतना है, वह अपने शुभ-अशुभ कर्मोंका कर्त्ता और भोक्ता है, शरीर प्रमाण है, अनादि निधन है, अमूर्त है और सिद्धस्वरूप है ||१२|| वह जीव मूर्त और अमूर्तके भेदसे दो प्रकारका है । (कर्मों से बँधा होनेके कारण संसारी जोव मूर्त कहा जाता है और सिद्ध स्वरूपकी अपेक्षा वह अमूर्त है ।) पुद्गल द्रव्य मूर्त है और वह स्कन्ध, देश, प्रदेश और अविभागी परमाणुकी अपेक्षा चार प्रकारका है ||१३|| धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश और काल ये चारों द्रव्य अमूर्त हैं, नित्य हैं और निष्क्रिय हैं । गमनमें सहकारी होना धर्मद्रव्यका लक्षण है, अवस्थान में सहकारी होना अधर्मद्रव्य का लक्षण है, अवकाश देना आकाशका लक्षण है और वर्तनागुण कालका लक्षण है ||१४|| काल के दो भेद हैं- मुख्यकाल और गौणकाल । मुख्य या निश्चयकाल अणुस्वभावी है और गौण या व्यवहारकाल भूत, वर्तमानादिरूप है तथा मुख्यकालके जाननेका हेतु है ||१५|| आस्रवतत्त्वका स्वरूप - मिथ्यात्व, विरति कषाय और योग इन चारके द्वारा जो अशुभ कर्म, तथा जिनपूजा आदिके द्वारा जो शुभकर्म जीवके भीतर आता है, वह आस्रव कहलाता है ||१६|| बन्धतत्त्वका स्वरूप -- जीव और आनेवाले कर्मों के प्रदेशोंका परस्परमें जो प्रवेश है, वह बन्ध कहलाता है । वह चार प्रकारका है - प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और आदि पदसे प्रदेश बन्ध ||१७|| संवरतत्त्वका स्वरूप- सम्यक्त्व, व्रत, क्रोधादि कषायोंका निग्रह और योग-निरोधसे जो कर्मोंका आस्रव-निरोध होता है, वह संवर कहा जाता है ||१८|| निर्जरातत्त्वका वर्णन - संचित कर्मोंके झड़नेको निर्जरा कहते हैं । वह दो प्रकारकी होती है - सविपाकनिर्जरा और अविपाकनिर्जरा | प्रथम सविपाकनिर्जरा संसार में सब जीवोंके होती है और दूसरी अविपाकनिर्जरा परम तपस्वियोंके होती है ||१९|| मोक्ष तत्वका स्वरूप - निर्जरा और संवरके द्वारा जो समस्त कर्मोंका क्षय हो जाता है, वह मोक्ष है । वह नोक्ष भव्य पुरुषोंको अनन्त ज्ञान और सुखरूप जानना चाहिये ||२०|| ये तत्त्व अपनी पर्याय और व्यञ्जन पर्यायोंसे सदा परिणमित होते रहते हैं, उन्हें प्रमाण, नय और निक्षेपोंसे जानकर श्रद्धान करना चाहिए ||२१|| सम्यक्त्वके दोषोंका वर्णन --- For Private & Personal Use Only ४३८ Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy