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________________ इक्कीसवाँ परिच्छेद नमिनाथं जिनाधीशं नमिताशेषविद्विषम् । धर्मामृतमहामेघं नमस्यामि सुखाप्तये ॥१ पञ्चातिचारसन्त्यक्तं मुनिभ्यो यो ददाति सः । अन्नदानं शिवं याति प्राप्य भोगं त्रिलोकजम् ॥२ भगवन् ! मे व्यतीपातान् दयां कृत्वा निरूपय । वक्ष्येऽहं शृणु ते मित्र ! दोषान् दानमलप्रदान् ॥३ स्यातां सचित्तनिक्षेपविधाने स्यादनादरः । मत्सरत्वं च कालातिक्रमो दानस्य दोषतः ॥४ सचित्तपद्मपत्रादावन्नं संस्थापयेन्नरः । प्रासुकस्यैव वा मध्येऽपुण्यार्थं सोऽपि तं श्रयेत् ॥५ पत्रादिनापि यः कुर्यादन्नं यतेश्च हेतवे । आच्छादनं श्रयेत्सोऽपि दोषं लोके पिधानकम् ॥६ आदरेण विना दानं सत्पात्राय ददाति यः । दानस्यानादरो दोषो जायते तस्य पापतः ॥७ अन्येषां योऽपि दातृणां गुणं दानसमुद्भवम् । सहते नैव तद्दोषं भजते दानमदान्वितः ॥८ स्थापयित्वा गृहे पात्रं दत्ते दानं प्रमादतः । योग्यकालं परित्यज्य स कालातिक्रमं भजेत् ॥९ दूरीकृत्य जनो दोषान्सर्वान् दानं ददाति यः । महापात्राय प्राप्नोति मनोऽभीष्टं फलं स वै ॥ १० चतुविधं महादानं दत्ते पात्राय यो बुधः । इहामुत्र सुखं भुक्त्वा क्रमाद्याति शिवालयम् ॥११ चतुविधमहादानात्प्राप्तं यैश्च सुखं शुभम् । दक्षैस्तेषां कथां स्वामिन् ! कथय त्वं ममादरात् ॥ १२ जिन्हें समस्त शत्रुमंडल भी नमस्कार करता है और जो धर्मरूपी अमृतको बरसानेके लिये महामेघ के समान हैं ऐसे श्री नमिनाथ जिनेन्द्रदेवको में सुखकी प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ ॥ १॥ जो बुद्धिमान् पाँचों अतिचारोंका त्यागकर मुनिराजके लिये आहारदान देता है वह तीनों लोकों के भोगोंका अनुभव कर अन्तमें मोक्ष प्राप्त करता है ||२|| प्रश्न - हे भगवन् ! कृपाकर मेरे लिये उन अतिचारोंका निरूपण कीजिये । उत्तर - हे मित्र ! सुन, में दानमें मल उत्पन्न करनेवाले उन अतिचारोंको कहता हूँ ||३|| सचित्तनिक्षेप, सचित्तापिधान, अनादर, मत्सर और कालातिक्रम ये पाँच दानमें दोप उत्पन्न करनेवाले अतिचार हैं ||४|| जो कमलपत्र आदि सचित्त पदार्थोंपर मुनिराजके लिये देनेयोग्य प्रासुक आहार रखता है अथवा प्रासुक आहारके मध्य में सचित्त वस्तुको रखता है उसके सचित्तनिक्षेप नामका अतिचार लगता है, यह भी पापके लिए होता है ||५|| जो पुरुष मुनिराज के लिये देनेयोग्य दानको कमलपत्र आदि सचित्त पदार्थसे ढकता है उसके सचित्तापिधान नामका अतिचार लगता है ||६|| जो उत्तम पात्रोंके लिये विना आदर सत्कारके दान देता है उसके पाप उत्पन्न करनेवाला अनादर नामका अतिचार लगता है ||७|| जो पुरुष अन्य दाताओं के दानमें उत्पन्न होनेवाले गुणोंको सहन नहीं कर सकता है उसके मत्सर नामका अतिचार लगता है ||८|| जो घर में पात्रको स्थापन करके प्रमादके कारण योग्य कालको उल्लंघन कर दान देता है उसके कालातिक्रम नामका अतिचार लगता है ||९|| जो पुरुष सदा दोषोंको छोड़कर महापात्रोंके लिये उत्तम दान देना है उसके सब मनोरथ फलीभूत होते हैं ||१०|| जो विद्वान् सुपात्रोंके लिये चारों प्रकारका महादान देता है वह इस लोक और परलोक दोनों लोकोंके सुख भोगकर अन्तमें मोक्ष प्राप्त करता है || ११ || प्रश्न - हे स्वामिन् ! चारों प्रकारके दान देनेसे जिन्होंने बहुत अच्छा सुख प्राप्त किया है उनकी कथा कृपाकर कहिये ||१२|| उत्तर - हे महाभाग ! सुन में श्री शान्तिनाथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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