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________________ ३८२ श्रावकाचार-संग्रह आबेटिनः समागत्य तत्र जालं क्षिपन्ति भो । मत्स्यार्थ ततस्तेभ्यो महाहिंसा प्रवर्तते ॥ २३८ इति मत्वा न कर्तव्यं सर्वं कूपादिकं क्वचित् । अहिंसाव्रतरक्षायं पापभीतैरघप्रदम् ॥२३९ सकलसुखनिधानं सर्वभोगेकखान, विमलगतिकरं वै स्वर्गसोपानभूतम् । नरकगृहकपाटं स्वान्ययोः सौख्यहेतुं सुभग ! सुमुनये त्वं प्रान्नदानं ददस्व ॥ २४० मुनिजनसुखहेतुं रोगमातङ्गसिहं, विमलगुणसमुद्रं प्रासुकं धर्मसिद्धये । मनुज हि यतये त्वं रोगग्रस्तापसारं, प्रचुरसुखसुगेहं स्वौषधं वै ददस्व ॥ २४१ शिवगतिगृहमागं सर्वलोकोपकारं, त्रिभुवनपतिसेव्यं विश्वतत्त्वप्रदीपम् । दुरिततिमिरसूयं धर्मवृक्षस्य कन्दं, बुध ! कुरु श्रुतप्राप्त्यै ज्ञानदानं मुनिभ्यः ॥२४२ ये कुर्वन्ति जिनालयं बुधजना धर्माकरं धर्मदं स्वर्मोक्षैकनिबन्धनं यतिजनैः सेव्यं निधानोपमम् । ते वन्द्याः परलोकसाधनधियः प्राप्याच्युतं शर्मदं राज्यं चानुव्रजन्ति मोक्षमतुलं धर्मोदयान्निश्चितम् ॥२४३ कुर्वन्ति बिम्बं भुवनैकपूज्यं जिनेश्वराणां सुसमर्चनीयम् । सत्पुष्यगेहं च महास्वरूपं भुक्त्वा सुखं तेऽपि व्रजन्ति मोक्षम् ॥ २४४ समुदाय मछलियोंकी हिंसा करते रहते हैं, और अनेक शिकारी आ आकर मछलियोंके लिये जाल फैलाते हैं । इन सब कामोंसे महा हिंसा होती है ।। २३७ - २३८ || यही समझकर अहिंसाव्रतकी रक्षा करनेके लिये पापोंसे डरनेवाले श्रावकोंको पाप उत्पन्न करनेवाला बावड़ी कुँआ तलाव आदि कभी नहीं बनवाना चाहिये || २३९ || हे भव्य ! मुनियोंके लिये आहारदान देना समस्त सुखोंकी निधि है, समस्त भोग उपभोगकी खान है, स्वर्गादिक निर्मल गतियोंको देनेवाला है, स्वर्गकी सीढ़ी है, नरकरूपी घरको बन्द करनेके लिये किवाड़ है, अपने और दूसरोंके लिये सुखका कारण है और सबसे सुन्दर वा उत्तम है इसलिये हे भव्य ! तू मुनिराजोंके लिये सदा आहारदान दे || २४०|| इसी प्रकार मुनियोंके लिये औषधदान देना मुनियोंके लिये सुखका कारण है, रोगरूपी हाथीको मारनेके लिये सिंहके समान है, निर्मल गुणोंका समुद्र है और अनन्त सुखका घर हैं, इसलिये हे भव्य, तू धर्मकी सिद्धिके लिये रोगी मुनियोंका सारभूत और प्रासुक औषधि दे, अर्थात् औषधदान कर || २४१ || आहारदान और औषधिदानके समान ज्ञानदान भी मोक्षमहल में पहुँचानेका कारण है, समस्त जीवोंका उपकार करनेवाला है, तीनों लोकोंके स्वामी तीर्थंकर परमदेव भी इसकी सेवा करते हैं, यह समस्त तत्त्वोंके प्रकट करने-दिखलाने के लिये दीपक है, पापरूपी अँधेरेको दूर करनेके लिये सूर्य है और धर्मरूपी वृक्षकी जड़ है, इसलिये हे विद्वन् ! श्रुतज्ञानको प्राप्त करनेके लिये तू मुनियोंके लिए ज्ञानदान दे ॥२४२॥ भगवान् जिनेन्द्रदेवका जिनभवन धर्मकी खानि है, धर्मकी वृद्धि करनेवाला है, स्वर्ग मोक्ष का कारण है, मुनिराज भी इसकी सेवा करते हैं (वन्दना करते हैं) और यह जिनालय एक विधान के समान है । ऐसे जिनालयको जो विद्वान् लोग बनवाते हैं वे संसारमें वन्दना करने योग्य हैं । उन्होंने अपनी बुद्धिको परलोककी सिद्धिमें ही लगा रक्खा है। ऐसे लोग उस इकट्ठे किये हुए धर्मके प्रभावसे सुख देनेवाले अच्युत स्वर्गके राज्यको पाकर मोक्षमें जा विराजमान होते हैं । इसमें कोई सन्देह नहीं है || २४३ || भगवान् जिनेन्द्रदेवका प्रतिबिम्ब भी संसारभरमें पूज्य है, सदा पूजनीय है और श्रेष्ठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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