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________________ ३८१ प्रश्नोत्तरत्रावकाचार दत्ते चन्द्रोपकं यो ना जिनागारे मनोहरे । एकछत्रं महद्राज्यं श्रयेत्सोऽपि शुभोदयात् ॥२२५ शोभायं श्रीजिनागारे दधुः सच्चामराणि ये । चामरेज़्ज्यमाणं ते नाकराज्यं व्रजन्ति वै ॥२२६ धर्मोपकरणान्येव ये ददन्ति जिनालये। भोगोपकरणान्येव ते लभन्ते भवे भवे ॥२२७ सिद्धान्ताविसमुद्धारे दातव्यं द्रव्यमञ्जसा । सफलं येन तत्पुंसां भवेज्ज्ञानसुखादिकम् ॥२२८ चतुर्विधाय संघाय दानं देयं चतुर्विधम् । द्रव्याढयेन गृहस्थेन यथायोग्यं शुभाय वै ॥२२९ जिनालये च तबिम्बे पूजोद्धारादिहेतवे । सिद्धान्तलेखने चाऽपि धनं देयं शुभाय वै ॥२३० इत्युक्तेऽतिसुक्षेत्रे यो दानं दद्यावृषाप्तये । परलोके श्रयेत्सोऽपि संख्यातीतं धनं शुभात् ॥२३१ दीनानाथमनुष्येभ्यः प्रारौद्रेभ्यो गृहान्वितैः । अन्नदानं च दातव्यं कृपयातिदयाप्तये ॥२३२ कृपादानं न कुर्वन्ति ये तेषां कठिनं मनः । स्यादतो जायते पापं तस्माद्देयं हि तत्सदा ॥२३३ वापीकूपतडागादि सर्व कार्य न सन्नरैः । महाहिंसाकरं लोके नित्यं दुरितदायकम् ॥२३४ कूपादिखननाशिल्पी यथाऽधो याति निश्चितम् । तद्वत्तत्कारको मूढो यावत्श्वभ्रं च सप्तकम् ॥२३५ यथा चैत्यालये पुण्यं नित्यं तत्कारिणां भवेत् । तथा कूपादिके पापं जीवोत्पत्तिविनाशतः ॥२३६ तडागेऽति महामत्स्यः प्रात्ति मीनलघून बहून् । वकसारससङ्घश्व चक्रवाककदं वकम् ॥२३७ करते हैं वे परलोकमें अनेक घंटाओंसे सुशोभित विमानपर चढ़कर गमन करते हैं ॥२२४|| जो मनुष्य मनोहर जिनभवनमें चन्दोवा देते हैं वे अपने पुण्य कर्मके उदयसे एक छत्र महाराज्यका उपभोग करते हैं ॥२२५॥ जो मनुष्य श्री जिनभवनकी शोभा बढ़ानेके लिये उसमें चमर समर्पण करता है वह अनेक ढुलते हुए चमरोंसे शोभायमान स्वर्गके साम्राज्यका उपभोग करता है ।।२२६॥ जो मनुष्य श्री जिनालयमें धर्मोपकरण देते हैं वे भव-भवमें भोगोपभोगके उपकरण (साधन) प्राप्त करते हैं ।।२२७।। मनुष्योंको सिद्धान्त ग्रन्थोंका उद्धार करनेके लिये अवश्य द्रव्य प्रदान करना चाहिये। क्योंकि सिद्धान्तोंका उद्धार करनेसे ही मनुष्योंका ज्ञान वा सुख आदि सब सफल गिना जाता है ॥२२८॥ धनाढ्य पुरुषोंको पुण्य उपार्जन करनेके लिये चारों प्रकारके संघको यथायोग्य रीतिसे चारों प्रकारका दान देना चाहिये ॥२२९|| गृहस्थोंको अपना पुण्य बढ़ानेके लिये, जिनालय के लिये, जिन प्रतिमाओंके लिये, जिन पूजाका उद्धार करनेके लिये और सिद्धान्त ग्रन्थोंका उद्धार करनेके लिये अपना धन देना चाहिये ॥२३०।। जो गृहस्थ धर्मकी वृद्धिके लिये ऊपर कहे हुए पुण्यक्षेत्रोंमें दान देता है वह उस पुण्य कर्मके उदयसे परलोकमें अनन्त धनको प्राप्त होता है ॥२३१।। गृहस्थोंको अपना दयाधर्म बढ़ानेके लिये दयापूर्वक जो हिंसक वा रुद्रपरिणामी नहीं है ऐसे दीन और अनाथ लोगोंको अन्नदान अवश्य देना चाहिये ॥२३२।। जो पुरुष करुणादान नहीं करते उनका मन कठोर हो जाता है और मन कठोर हो जानेसे पाप लगता है इसलिये गृहस्थोंको सदा करुणादान देते रहना चाहिये ॥२३३॥ उत्तम पुरुषोंको बावड़ी, कुँआ और तलाव आदि नहीं करना चाहिये क्योंकि इनके बनवाने में महा हिंसा होती है और इनसे संसारमें सदा पाप उत्पन्न होते रहते हैं ॥२३४॥ कुंआ खोदनेवाला कारीगर जिस प्रकार नीचे ही नीचेको चलता जाता है उसी प्रकार उसका खुधानेवाला अज्ञानी पुरुष भी सातवें नरकतक नीचे ही नीचे चला जाता है ॥२३५॥ जिस प्रकार चैत्यालयके बनवाने में उसके बनवानेवालेको सदा पुण्यकी प्राप्ति होती है उसी प्रकार कुंआमें भी सदा जीवोंकी उत्पत्ति और विनाश होता रहता है इसलिये उनके बनवानेवालोंको भी सदा ही पापकी प्राप्ति होती रहती है ।।२३६॥ तलावोंमें बड़े बड़े मगरमच्छ छोटी छोटी अनेक मछलियोंको खा जाते हैं, बगला, बाज, चकवा चकवी आदि अनेक पक्षियोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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