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________________ प्रश्नोत्तरप्रावकाचार ३७३ अन्यायतोऽपि या लक्ष्मीः समायाति गृहे नृणाम् । कुपात्रदानजा सोऽपि बुधैर्जेयाऽघकारिणी ॥१२२ यत्सुखं प्राप्यते लोकैर्महानीचकुलेषु भो । श्वभ्रादिकारणं तच्च कुपात्रदानजं भवेत् ॥१२३ महापापेन आयाति या नणां दुःखदायिका । अन्यायकारिणी साऽपि बुधैरुक्ता कुपात्रजा ॥१२४ यो भोगो लभते लोके दुष्टैरन्यायतोऽशुभः । कुपात्रदानसंभूतः सोऽपि ज्ञेयोऽशुभप्रदः ॥१२५ कुपात्रदानतो जीवाः प्राप्य भोगं कुयोनिषु । स्वल्पं पापकरं पापान्मज्जन्ति श्वभ्रसागरे ॥१२६ कुपात्रदानदोषेण भुक्त्वा तिर्यग्गतौ सुखम् । स्तोकं भ्रमन्ति संसारवने जीवाः कुदुःखिताः ॥१२७ या काचिज्जायते लक्ष्मीः पुंसां नीचकुलेषु भो । सा सर्वाऽपि जिनरुक्ता पापयुक्ता कुपात्रजा ॥१२८ कुपात्रदानतो नाकभोगं वाञ्छन्ति ये शठाः । गोशृङ्गतोऽपि ते क्षीरं समोहन्ते कुबुद्धयः ॥१२९ इति मत्वा कुपात्रं हि त्यक्त्वा दानं ददस्व भो । स्वर्गमुक्तिकरं सारं सत्पात्राय विमुक्तये ॥१३० अपात्रदानजं दोषं वक्तुं शक्नोति को बुधः । दृषत्पोतसमं दानं ह्यपात्रगतमञ्जसा ॥१३१ शिलोपरि यथा चोप्तं बीजं भवति निष्फलम् । तथापात्राय यद्दत्तं तद्दानं निष्फलं भवेत् ॥१३२ येन दत्तमपात्राय दानं तत्तेन नाशितम् । कुमार्गे हि यथारण्ये गृहीतं तस्करैर्धनम् ॥१३३ पोषितोऽपि यथा शत्रुरहिर्वा दुःखमञ्जसा । ददाति प्राणिनां तद्वदपात्रो दुरितं परम् ॥१३४ ॥१२१।। मनुष्योंके घर जो लक्ष्मी अन्यायसे आती है वह लक्ष्मी पाप उत्पन्न करनेवाली होती है और वह कुपात्र दानसे ही आती है ऐसा विद्वानोंको जान लेना चाहिये ॥१२२।। महा नीच कुलोंमें उत्पन्न हुए मनुष्योंकी जो नरकादिके कारण रूप पापोंको उत्पन्न करनेवाला सुख प्राप्त होता है वह सब कुपात्र दानके फलसे ही होता है ॥१२३।। मनुष्योंको दुःख देनेवाली और अनेक प्रकारके अन्याय करनेवाली जो लक्ष्मी महापापके कामोंसे आती है वह भी कुपात्र दानके फलसे ही आती है ऐसा विद्वान् लोगोंने कहा है ॥१२४।। इस संसारमें दुष्ट लोग जो अन्यायसे अशुभ भोगोपभोग को प्राप्त करते हैं वे भी कुपात्र दानसे ही होते हैं और आगेके लिये पाप उत्पन्न करनेवाले होते हैं ऐसा निश्चित रूपसे समझ लेना चाहिये ॥१२५॥ ये प्राणी कुपात्र दानके फलसे नीच योनियोंमें थोड़ेसे भोगोपभोग प्राप्त करते हैं परन्तु उन भोगोंसे अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न करते हैं और उन पापकर्मोके उदयसे नरकरूपी महासागरमें ही डूबते हैं ॥१२६।। इस कुपात्रदानके दोषसे तिर्यंचगतिके थोड़ेसे सुख भोगकर फिर संसाररूपी वनमें जा पड़ते हैं और वहाँपर अनेक प्रकारके दुःख भोगते हैं ॥१२७॥ मनुष्योंको जो नीच कुलोंमें लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है वह सब पाप उत्पन्न करनेवाली लक्ष्मी कुपात्रदानसे ही होती है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेवने बतलाया है ।।१२८॥ जो मूर्ख इस कुपात्रदानसे स्वर्गोके भोग चाहते हैं वे कुबुद्धि लोग गायके सींगोंसे दूध दुहना चाहते हैं ॥१२९।। यही समझकर हे भव्य ! मोक्ष प्राप्त करनेके लिये तू कुपात्रोंको छोड़कर सुपात्रोंके लिये स्वर्ग मोक्ष देनेवाला दान दे ॥१३०॥ __ इसी प्रकार अपात्रदानके दोषोंको कौन बुद्धिमान् कह सकता है । यह अपात्रदान इस लोक और परलोकके लिये पत्थरकी नावके समान है ॥१३१।। जिस प्रकार पत्थरको शिलापर बोनसे बीज निष्फल हो जाता है उसी प्रकार अपात्रके लिये जो कुछ दिया जाता है वह सब निष्फल हो जाता है ॥१३२।। जिस प्रकार किसी वनमें चोर लोग धनको छीन लेते हैं उसी प्रकार जिसने अपात्रको दान दिया वास्तवमें उसने वह द्रव्य कुमार्गमें नष्ट कर दिया समझना चाहिये ॥१३३॥ जिस प्रकार पालन किया हुआ शत्रु वा सर्प प्राणियोंको दुःख ही देता है उसी प्रकार अपात्रको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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