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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचारं दयादानेन पापस्य संवरो निर्जरा भवेत् । जायते प्रत्यहं नृणां महाधर्मः सुखाकरः ॥९४ अनध्यं यदुराराध्यमसाध्यं तपसादिभिः । तत्सर्वमभयात्पुंसां भवेल्लोकत्रये स्थितम् ॥९५ अनन्तदर्शनज्ञानवीर्यसौख्यादिको नृणाम् । पूज्यः शक्रादिभिर्मोक्षो दयादानेन जायते ॥९६ इति मत्वा हि दातव्यं दानं चाभयसंज्ञकम् । धर्माय सर्वजीवेभ्यः श्रावकैः मुनिभिः सदा ॥९७ इत्यादिकं महादानं ये ददन्ति निरन्तरम् । सुपात्रस्य भवेत्तेषां सफलं जन्म सद्गृहम् ॥९८ ये धनाढ्या नरात्पात्रदानं कुर्वन्ति नैव भो । व्यर्थ जन्म भवेत्तेषामजाकण्ठे स्तनादिवत् ॥९९ नावसमो ज्ञेयो दानहीनो गृहाश्रमः । तदारूढा निमज्जन्ति संसाराब्धौ सुदुस्तरे ॥१०० मुनिपादोदकेनैव यस्य गेहं पवित्रितम् । नैव श्मशानतुल्यं हि तस्यागारं बुधैः स्मृतम् ॥१०१ यदि विनात्र दानेन गृहस्था हि भवन्ति भो । तदा खगाः गृहस्था स्युः गृहव्यापारयोगतः ॥ १०२ दत्ते दानं न पात्राय यल्लोके कृपणो नरः । यः स मोहेन मृत्वा हि सर्पादिकुर्गात व्रजेत् ॥१०३ वरं दारिद्र्यमेवार्थं न च मोहकरं धनम् । दानहीनं नृणामग्रे श्वभ्रादिगतिकारणम् ॥१०४ समर्थो यो महालोभी ददाति मुनये न वै । दानं परत्रयं शर्म सोऽपि छिनत्ति चात्मनः ॥ १०५ दत्ते दानं न पात्राय तपो नैव करोति यः । स ज्ञेयो मनुजत्वेऽपि त्यक्तशृङ्गशोरिव ॥१०६ स्वोदरं पूरयन्त्येव पशवोऽपि मुनीशिनाम् । कुर्वन्ति चोपकारं ये ते श्लाघ्याः भुवनत्रये ॥ १०७ ૨૦૨ इस दयादानसे ही पापकर्मोंका संवर होता है और निर्जरा होती है तथा इस दयादानसे ही प्रतिदिन मनुष्योंको सुख देनेवाले महाधर्मकी प्राप्ति होती है ||१४|| संसार में जो पदार्थ अमूल्य हैं, जो कठिनता से प्राप्त हो सकते हैं अथवा जो तपश्चरण आदिसे भी सिद्ध नहीं हो सकते ऐसे तीनों लोकों में रहनेवाले समस्त पदार्थ मनुष्यों को केवल अभयदानसे प्राप्त हो जाते हैं || ९५|| इस दयादान प्रतापसे मनुष्यों को अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य और इन्द्रादिके द्वारा पूज्य ऐसा परम मोक्ष प्राप्त होता है || ९६ || यही समझकर श्रावकोंको और मुनियोंको केवल धर्मपालन करनेके लिये समस्त जोवोंको सदा अभयदान देते रहना चाहिये ॥९७॥ जो मनुष्य सुपात्रोंके लिये ऊपर कहे हुए समस्त दान सदा देते रहते हैं उन्हींका जन्म और उन्हींका गृहस्थाश्रम सफल समझना चाहिये ||१८|| जो मनुष्य धनी होकर भी कभी पात्रोंको दान नहीं देते उनका जन्म बकरीके गलेके स्तनोंके समान व्यर्थ समझना चाहिये ||१९|| जिस गृहस्थाश्रम में दान नहीं दिया जाता वह गृहस्थाश्रम पत्थरकी नावके समान समझना चाहिये । ऐसे गृहस्थाश्रम में रहकर मूर्ख लोग अत्यन्त अथाह संसाररूपी महासागर में डूब जाते हैं || १०० || जिनका घर मुनियोंके चरणकमलोंके जलसे पवित्र नहीं हुआ है उनका घर श्मशानके समान है ऐसा विद्वान् लोग मानते हैं ॥ १०१ ॥ | यदि दान दिये विना ही गृहस्थ गृहस्थ कहलाने लगें तो फिर घरके व्यापार में लगे रहने के कारण सब पक्षियोंको भी गृहस्थ कहना चाहिये ||१०२ || संसारमें जो कंजूस मनुष्य पात्रों को दान नहीं देता वह धनके मोहसे मरकर सर्प आदिकी कुगतिमें जन्म लेता है ||१०३ || इस संसार में दरिद्रता अच्छी परन्तु मनुष्योंको आगे नरकादिक कुगतियोंको देनेवाला तथा मोह उत्पन्न करनेवाला दान रहित धन अच्छा नहीं || १०४॥ जो महालोभी मनुष्य समर्थ होकर भी मुनियोंको दान नहीं देता वह अपने परलोक के समस्त सुखोंको नष्ट कर देता है || १०५ || जो न तो पात्रोंको दान देता है और न तपश्चरण करता है वह मनुष्य होकर भी सींग रहित पशुके समान समझा जाता है क्योंकि जिस प्रकार वह अपना ही पेट भरता है उसी प्रकार पशु भी अपना पेट भर लेते हैं ॥ १०६ ॥ | इसलिये जो गृहस्थ मुनियोंका उपकार करते रहते हैं वे तीनों लोकोंमें प्रशंसनीयगि ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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