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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार समस्तशास्त्रविज्ञानं मतिबाहुल्यमेव च । अवधि षड्विां द्वेषा मनःपर्ययसंज्ञकम् ॥६७ कलाविज्ञानकौशल्यं लोकचेष्टादिकं तथा । लभन्ते ज्ञानदानेन चेहामुत्र बुधोतमाः ॥६८ शास्त्रदानेन सारेण द्वादशाङ्गमहोदधेः । व्रजन्ति ज्ञानिनः पारं संसारस्य क्रमात् पुनः ॥६९ केवलज्ञानसाम्राज्यं त्रैलोक्यक्षोभकारणम् । ज्ञानदानप्रसादेन लभन्ते सुधियो भुवि ॥७० ज्ञानदानप्रभावेन विभूति गौतमादिजाम् । प्राप्य हत्वा स्वकर्माणि बुधा यान्ति परं पदम् ॥७१ श्रुतज्ञानप्रदानेन लब्ध्वा नाकं महानिमम् । सद्राज्यं केवलं चापि यान्ति मोक्षं नरोत्तमाः ॥७२ यो ना वसतिका दत्ते सत्पात्राय सुखाप्तये । उच्चैगेंहं विमानं स चेहामुत्र श्रयेत्स्फुटम् ॥७३ प्राप्य वसतिका सारा ध्यानं वाध्ययनं तपः। मुनिः संहनने होने कर्तुं शक्नोति नान्यथा ॥७४ वज्रकाया महाधैर्या महासत्त्वा शुभाशयाः । परीषहसहा धोरा ह्यादिसंहननान्विताः ॥७५ ध्यानाध्ययनकर्मादि सर्व गिरिगुहादिषु । भवन्ति मुनयः कर्तुं समर्थास्त्यक्तदेहिनः ॥७६ तस्माद्वसतिकादानं यः पात्राय ददाति ना। सारं गेहं विमानं च प्राप्य मुक्त्यालयं व्रजेत् ॥७७ सर्वाङ्गिभ्योऽभयं दानं वरिष्ठं यो ददाति सः । नृदेवजं सुखं भुक्त्वा निर्भयं स्यानमाप्नुयात् ॥७८ अभयाख्येन दानेन विना दानचतुष्टयम् । व्यथं भवति लोकानां तपोहीनं यथा वपुः ॥७९ देनेवाली वाणी प्राप्त करते हैं। कविता करना, पांडित्य प्राप्त करना, वादी होना, प्रतापी होना, समस्त शास्त्रोंका सबसे अधिक ज्ञान होना, छह प्रकारका अवधिज्ञान प्राप्त होना, दोनों प्रकारका मनःपर्यय प्राप्त होना, कला विज्ञान आदिमें कुशल होना, समस्त लौकिक व्यवहारका प्राप्त होना आदि सब ज्ञानदानके ही प्रतापसे प्राप्त होता है ॥६६-६८। इस सारभूत ज्ञानदानके प्रतापसे ज्ञानी पुरुष द्वादशांग, श्रुतज्ञानरूपी महासागरके पार हो जाते हैं और फिर वे अनुक्रमसे इस संसारके भी पार हो जाते हैं ॥६९।। बुद्धिमान् लोग इस संसारमें ज्ञानदानके ही प्रसादसे तीनों लोकोंको क्षोभित करनेका कारण ऐसे केवलज्ञानरूपी साम्राज्यको प्राप्त होते हैं ।।७०॥ बुद्धिमान् लोग इस ज्ञानदानके ही प्रभावसे गौतमादि गणधरोंकी विभूति पाकर तथा समस्त कर्मोको नाशकर मोक्षरूपी परमपदमें जा विराजमान होते हैं ।।७१॥ उत्तम मनुष्य इस ज्ञानदानके ही प्रसादसे सबसे अन्तिम स्वर्गको पाकर तथा श्रेष्ठ राज्य भोगकर और केवलज्ञान पाकर मोक्षमें जा विराजमान होते हैं ॥७२॥ जो मनुष्य सुख प्राप्त करने के लिये श्रेष्ठ पात्रोंको (मुनियोंको) वसतिका दान देते हैं वे इस लोक वा परलोकमें ऊँचे भवनोंमें अथवा उत्तम विमानोंमें जा विराजमान होते हैं ।।७३।। मुनिराज होन संहनन होनेपर उत्तम वसतिकाको पाकर ही ध्यान, अध्ययन वा तपश्चरण कर सकते हैं। विना वमतिकाके वे ध्यानादिक नहीं कर सकते । हाँ जिनका शरीर वचके समान है, जो महा धीरवीर हैं, महा पराक्रमी हैं, जिनका हृदय शुभ है, जो परीषहोंको सहन करने में धीरवीर हैं, जो वज्रवृषभनाराच संहननको धारण करनेवाले हैं और जिन्होंने अपने शरीरसे ममत्वका त्याग कर दिया है, ऐसे मुनिराज पर्वतकी गुफाओंमें वा अन्यत्र भी ध्यान अध्ययन आदि समस्त कर्म कर सकते हैं ॥७४-७६।। इसलिये जो मनुष्य उत्तम पात्रोंके लिये वसतिका दान देते हैं वे उत्तम भवन और सुन्दर विमानोंको पाकर अन्तमें मोक्षमहलमें जा विराजमान होते हैं ॥७७॥ जो मनुष्य समस्त जीवोंके लिये उत्तम अभयदान देता है वह मनुष्य और देवोंके उत्तम सुख भोगकर अन्तमें निर्भयस्थानमें सब तरहके भयोंसे रहित मोक्षस्थानमें जा विराजमान होता है ।।७८। जिस प्रकार विना तपश्चरणके शरीर व्यर्थ है उसी प्रकार अभयदानके विना लोगोंके ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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