SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 401
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६८ श्रावकाचार-संग्रह लभन्ते पात्रदानेन इन्द्रचक्रधरादिजान् । दक्षा भोगांश्च लोकेऽस्मिन् तीर्थराजनिषेवितान् ॥५४ यथा शिल्पी व्रजेदूवं कृतगेहादिभिः समम् । तथा दानोच्चपात्रेण समं दानादियोगतः ॥५५ पुंसां कल्पांहिपचिन्तामणिकामदुघादयः । मनोऽभिलषितं भोगं प्रदधुर्भुवि दानतः ॥५६ किमत्र बहुनोक्तेन पात्रवानप्रभावतः । भुक्त्वा नृदेवजं सौख्यं यान्ति मुक्ति क्रमाद् बुधाः ॥५७ औषधाख्येन दानेन नश्येद्रोगकदम्बकम् । मुनीनां त्यक्तसङ्गानां स्वस्थं सञ्जायते वपुः ॥५८ ततः संज्ञानवृत्तादि सर्वमाचरितुं क्षमः । भवेन्मुनिस्ततो गच्छेत्स्वर्गमुक्तिगृहादिकम् ॥५९ तस्मादौषधदानेन महत्पुण्यं भवेत्रणाम् । त्यक्तरोग शरीरं च लावण्यादिविभूषितम् ॥६० ज्ञानदानेन पात्राणामज्ञानं प्रपलायते । जायते च महज्ज्ञानं लोकाग्रपथदीपकम् ॥६१ ।। ज्ञानात्सद्ध्यानवृत्तादि सर्वं यमकदम्बकम् । आचरित्वा बजेन्मुक्ति मुनिः सर्वसुखाकराम् ॥६२ ज्ञानपोतं समारूढः संसाराब्धिदुस्तरम् । स्वयं तरति भव्यानां तारयेच्च मुनीश्वरः ॥६३ ज्ञानहीनो न जानाति कृत्याकत्यं शुभाशुभम् । हेयाहेयं विवेकं च बन्धमोक्षादिकं मुनिः ॥६४ तस्माद् ज्ञानं महादानं यः पात्राय ददाति ना। बहुभव्योपकारत्वातस्य पुण्यं न वेदम्यहम् ॥६५ मनोज्ञां सुस्वरां वाणों मधुरां कर्णसौख्यदाम् । कवित्वं चैव पाण्डित्यं वादित्वं च प्रतापताम् ॥६६ पुरुष सम्यग्दर्शनसे विभूषित हैं वे बुद्धिमान् महापात्रोंको दान देनेसे सुखकी खानि ऐसे अच्युत स्वर्गमें उत्तम देव होते हैं ।।५३।। उत्तम पात्रोंको दान देनेसे चतुर पुरुषोंको इस संसारमें इन्द्र, चक्रवर्ती और तीर्थंकर आदिके द्वारा सेवन करने योग्य उत्तम भोग प्राप्त होते हैं ।।५४|| जिस प्रकार मकान बनानेवाला कारीगर ज्यों-ज्यों मकान बनाता जाता है त्यों-त्यों ऊंचा चढ़ता है उसी प्रकार दान देनेवाला गृहस्थ जैसे-जैसे उत्तम पात्रोंको दान देता है वह उस दानके प्रभावसे वैसा ही उत्तम वा उच्च होता जाता है ॥५५।। इस संसारमें दान देनेसे ही मनुष्योंको कल्पवृक्ष, चिन्तामणि और कामधेनु आदि इच्छानुसार भोग देते हैं ॥५६।। बहुत कहनेसे क्या लाभ है ? थोड़ेसे में इतना समझ लेना चाहिये कि इस पात्रदानके ही प्रभावसे बुद्धिमान् लोग मनुष्य और देवोंके सुख भोगकर अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥५७|| इसी प्रकार औषधदानसे समस्त परिग्रहोंका त्याग करनेवाले मुनियोंके सब रोग नष्ट हो जाते हैं और उनका शरीर स्वस्थ हो जाता है ॥५८॥ शरीर स्वस्थ होनेसे ही वे मुनिराज सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको धारण करने में समर्थ होते हैं और फिर उस सम्यग्ज्ञान वा सम्यक्चारित्रके प्रभावसे वे स्वर्ग मोक्षमें जा विराजमान होते हैं ।।५९।। इसलिये औषधदानसे मनुष्योंको महापुण्यको प्राप्ति होती है, उनका शरीर सदा नीरोग रहता है और लावण्यता आदिसे सुशोभित रहता है ॥६०॥ ज्ञान दान देनेसे मुनियोंका वा पात्रोंका अज्ञान दूर होता है और मोक्षमार्गको दिखानेवाला महाज्ञान प्रगट होता है ॥६१।। सम्यग्ज्ञानके कारण ही मुनि श्रेष्ठ ध्यान, चारित्र, यम, नियम आदि सबको पालनकर समस्त सुखोंको निधि ऐसे मोक्षमें जा विराजमान होते है ॥६२॥ मुनिराज ज्ञानरूपी जहाजपर बैठकर अत्यन्त कठिनतासे पार करने योग्य इस संसाररूपी महासागरसे स्वयं पार हो जाते हैं और अन्य कितने ही भव्य जीवोंको पार कर देते हैं ॥६३।। जो मुनि ज्ञान-रहित हैं वे करने योग्य, न करने योग्य, शुभ, अशुभ, हेय, उपादेय, विवेक, बन्ध, मोक्ष आदि कुछ नहीं जानते हैं ॥६४॥ इसलिये जो मनुष्य पात्रोंके लिये (मुनिराजोंके लिये) ज्ञानदानरूपी महादान देते हैं वे अनेक भव्योंका उपकार करते हैं, अतएव उनके उपार्जन किये हुए पूण्यको हम लोग जान भी नहीं सकते।६ि५॥ उत्तम विद्वान् इस ज्ञानदाताके प्रतापसे इस लोक और परलोक दोनों लोकोंमें मनोहर, सुस्वर, मधुर और कानोंको सुख Jain Education International For Private & Personal use only.. www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy