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________________ श्रावकाचार-संग्रह आसन्नभव्यताकर्महानि सज्ञित्वशुद्धिभाक् । देशनाद्यस्तमिथ्यात्वो जीवः सम्यक्त्वमश्नुते ॥६ कलिप्रावृषि मिथ्यादिङ्मेघच्घासु दिक्ष्विह । खद्योतवत्सुदेष्टारो हा द्योतन्ते क्वचित् क्वचित् ।।७ नाथामहेऽद्य भद्राणामप्यत्र किमु सदृशाम् । हेम्न्यलभ्ये हि हेमाश्मलाभाय स्पृहयेन्न कः ।।८ कुधर्मस्थोऽपि सद्धर्म लघुकमंतयाऽद्विषन् । भद्रः स देश्यो द्रव्यत्वान्नाभद्रस्तद्विपर्ययात् ॥९ अच्छे बुरे किसी भी पदार्थका दर्शन तथा ज्ञान नहीं होता उसी प्रकार अगहीतमिथ्यात्वके उदयसे जीवके धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप और स्व-पर आदि पदार्थोंका यथार्थ श्रद्धान नहीं होता। दूसरोंके उपदेशसे ग्रहण किये गये विपरीत तथा एकान्त-श्रद्धान रूप मिथ्यात्वको गृहीतमिथ्यात्व कहते हैं । जैसे जब किसी व्यक्तिको भूत लग जाता है तब वह भूत उसको स्वाभाविक दशाको भुलाकर उसे नानाप्रकारसे नचाता है, उसी प्रकार गृहीतमिथ्यात्व भी जीवोंको एकान्त तथा विपरीत आदि रूपसे पदार्थोंका श्रद्धान कराकर नानाप्रकारके धर्माभास रूप अनुष्ठान कराता है। जिनदेव द्वारा निरूपित अनेकान्तस्वरूप जीवादिक वस्तुएँ 'उसी प्रकारसे हैं या नहीं' इस प्रकार यथार्थ व अयथार्थ किसी एक भी स्वरूपका निश्चय नहीं कराने वाले चलित श्रद्धानको सांशयिकमिथ्यात्व कहते हैं। जैसे शरीरके भीतर घुसा हुआ बाण जब तक शरीरसे नहीं निकल जाता है तब तक शान्ति नहीं होने देता, कुछ भी काम करो अपनी ओर ही चित्तको खींचता है, उसी प्रकार सांशयिक मिथ्यात्व भी जीवोंके चित्तको अनुष्ठातव्य विषयकी ओरसे रोककर सदैव अशान्त करता है ।।५।। ____ आसन्नभव्यता, कर्महानि (मिथ्यात्वादि कर्मोंका उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय) संज्ञीपना और परिणामोंकी विशुद्धि ये चार सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिमें अन्तरङ्ग कारण हैं। तथा सच्चे गुरुका उपदेश, जातिस्मरण, जिनबिम्बदर्शन और वेदनाका होना आदि सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति में बाह्य कारण हैं ॥६।। जिस प्रकार वर्षा ऋतुमें मेघोंके द्वारा सम्पूर्ण दिशाओंके आच्छादित हो जानेपर सूर्य और चन्द्रका प्रकाश न होने पर भी किसी किसी प्रदेशमें कहीं कहीं पर ही खद्योत (जुगनू) चमकते दिखाई देते हैं उसी प्रकार इस पंचमकालरूपी वर्षाकाल में सर्वथैकान्तवादी बौद्ध, नैयायिक आदिकोंके मिथ्या उपदेशरूपी मेघोंके द्वारा अनेकान्त उपदेशरूपी दिशाओंके व्याप्त हो जानेपर (ढक जानेपर) बाधारहित और सम्पूर्ण जीवाजीवादि अनेकान्तरूप तत्त्वोंका उपदेश देनेवाले सच्चे गुरु आर्य-क्षेत्रमें कहीं कहीं पर ही दिखाई देते हैं ।।७॥ जिस प्रकार संसारमें सब लोग सुवर्णको चाहते हैं, परन्तु जिस समय सुवर्ण नहीं मिलता; उस समय वे सुवर्णकी उत्पत्तिके स्थानभूत सुवर्णपाषाणको ही चाहने लगते हैं। उसी प्रकार वास्तवमें सम्यग्दृष्टि ही देशनाके सच्चे अधिकारी हैं इसलिये जहाँ तक सम्यग्दृष्टि पुरुष मिलें वहाँ तक उनको ही उपदेश देना चाहिये। क्योंकि दर्शनमोहनीय कर्मके उदयके द्वारा जिन पुरुषोंके चित्त व्याप्त हो रहे हैं ऐसे पुरुष तो उपदेशश्रवणके पात्र ही नहीं हैं।। परन्तु यदि सम्यग्दृष्टि नहीं मिल सकें तो फिर मिथ्यादृष्टि भद्रपुरुषोंको ही उपदेश देना चाहिए ॥८॥ जो व्यक्ति मिथ्याधर्मका पालक होता हुआ भी समीचीनधर्मसे द्वेषके कारणभूत मिथ्यात्वकर्मके उदयकी मन्दतासे समीचीन धर्मसे द्वेष नहीं करता उसे भद्र कहते हैं। तथा जो कुधर्ममें स्थित होकर भी मिथ्यात्वकर्मके उदयकी तीव्रतासे समीचीनधर्मसे द्वेष करता है उसे अभद्र कहते हैं। इन दोनोंमेंसे भद्र तो आगामीकालमें सम्यक्त्वगुणकी प्राप्ति योग्य हो सकता है इसलिये वह तो उपदेश ग्रहण करनेका अधिकारी है, किन्तु अभद्र पुरुष आगामी कालमें भी सम्यक्त्वगुणकी प्राप्तिके योग्य नहीं हो सकता, इसलिये उसे उपदेश देना वृथा है ।।९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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