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श्री:
पण्डितप्रवर आशाघर-विरचित
सागारधर्मामृत
प्रथम अध्याय
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अथ नत्वाहतोऽक्षणचरणान् श्रमणानपि । तद्धर्मरागिणां धर्मः सागाराणां प्रणेष्यते ॥१ अनाद्यविद्यादोषोत्थचतुःसंज्ञाज्वरातुराः। शश्वत्स्वज्ञानविमुखाः सागाराः विषयोन्मुखाः ॥२ अनाद्यविद्यानुस्यूतां ग्रन्थसंज्ञामपासितुम् । अपारयन्तः सागाराः प्रायो विषयमूच्छिताः ॥३ नरत्वेऽपि पश्यन्ते, मिथ्यात्वग्रस्तचेतसः । पशुत्वेऽपि नरायन्ते सम्यक्त्वव्यक्तचेतनाः ॥४ केषाञ्चिदन्धतमसायतेऽगृहीतं ग्रहायतेऽन्येषाम् । मिथ्यात्वमिह गृहीतं शल्यति सांशयिकमपरेषाम् ॥५
ग्रन्थकार श्री पं० आशाधर जी कहते हैं कि अनगारधर्मामृतकी रचनाके अनन्तर सम्पूर्ण यथाख्यात चारित्र युक्त अर्हन्त परमेष्ठीको और निर्दोष चारित्र-युक्त दिगम्बर आचार्य, उपाध्याय
और साधुओंको नमस्कार करके संहननकी हीनता आदि दोषोंके कारण मुनिधर्मके पालनकी योग्यता न होने पर भी जो मुनिधर्ममें प्रेम करते हैं ऐसे गृहस्थोंका धर्म उन्हें उसी भवमें या भवान्तर में मुनिधर्मकी योग्यता प्राप्त हो इस भावनासे यहाँ कहा जाता है ।।१।। जिस प्रकार वात, पित्त और कफ इन तीनों दोषोंकी विषमतासे उत्पन्न होने वाले प्राकृत आदि चार प्रकारके ज्वरोंसे पीड़ित होनेके कारण मनुष्य हिताहितके विवेकसे शून्य हो जाता है, उसी प्रकार अनित्य पदार्थों को नित्य, अपवित्र पदार्थोंको पवित्र, दुःखोंको सुख तथा अपनेसे भिन्न स्त्री पुत्र भित्रादिक बाह्य पदार्थोंको 'अपना मानना' रूप अनादिकालीन अविद्या रूपी वात, पित्त वा कफकी विषमतासे उत्पन्न होनेवाली आहारादिक चारों संज्ञाओं रूपी ज्वरसे पीड़ित होनेके कारण जो निरन्तर मुख्यतया स्वात्मज्ञानसे विमुख होकर राग तथा द्वेषसे इष्ट और अनिष्ट विषयोंमें प्रवृत्त रहता है उसे सागार कहते हैं ।।२।। सन्ततिरूप परम्परासे चले आनेवाले बीज अंकुरकी तरह अनादिकालीन अज्ञानके द्वारा सन्ततिरूप परम्परासे चली आनेवाली परिग्रह संज्ञाको जो नहीं छोड़ सकते, तथा जो बहुधा स्त्री आदि इष्टविषयोंमें ममकाररूप विकल्पोंकी परतन्त्रतासे व्याप्त रहते हैं वे सागार (गृहस्थ) कहलाते हैं ।।३।। जिसका आत्मा मिथ्यात्वसे व्याप्त होता है उसके हिताहितका विवेक नहीं होता इसलिये वह पशुके समान है और सम्यक्त्वके द्वारा जिसकी स्वानुभूति (चैतन्य-सम्पत्ति) प्रगट होती है, उसके हिताहितका विवेक होता है, इससे वह पशु होकर भी मनुष्यके समान है ।।४।। मिथ्यात्वके तीन भेद हैं-अगृहीत, गृहीत और सांशयिक । एकेन्द्रियसे लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों तकके अगृहीतमिथ्यात्व होता है। गृहोमिथ्यात्व संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके होता है। सांशयिकमिथ्यात्व इन्द्राचार्य आदिको शल्यके समान कष्ट देता है। विशेषार्थ-दूसरोंके उपदेशके बिना जीवके अनादिकालसे जो तत्त्वोंमें अश्रद्धा होती है उसे अगृहीतमिथ्यात्व कहते हैं। जैसे गाढ़ अन्धकार
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