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________________ २७६ श्रावकाचार-संग्रह कुगतिकर्मसारं बुद्धिनिर्नाशकं वै, नरकगमनमार्ग पापदुखाःदिमूलम् । विकलकर्मवित्त्वं धर्मवृक्षाग्निदावं, त्यज विषमिव धर्मप्राप्तये मद्यपानम् ॥१२ जीवहिंसादिसञ्जातं निन्द्यं पापकरं शठः । स्वीकृतं चास्पृशं लोके पलं त्याज्यं विवेकिभिः ॥१३ हत्वा यस्यामिषं योऽत्र प्राति दुष्टः कृपां विना । चामुत्र तस्य लोके स वैरसंस्कारयोगतः ॥१४ पलाशनं प्रकुर्वन्ति येऽधमाः स्वादुवञ्चिताः । मज्जन्ति दुःखसम्पूर्णे ते संसारमहार्णवे ॥१५ . असक्ता आमिषं त्यक्तुं धर्म वाञ्छन्ति ये शठाः । नयनाभ्यां विना तेऽपि द्रष्टुमिच्छन्ति नाटकम् ॥१६ नरककर्मसारं पापवृक्षस्य कन्दं, कृमिकुलशतपूर्ण चास्पृशं नैव दृश्यम् । इह विषमतिपापं सज्जनधर्मयुक्तैः त्यज कुगतिकुबीजं त्वं पलं धर्महेतोः ॥१७ त्रसजीवादिसंव्याप्तं मक्षिकादितं मधु । पापदुःखाकर निन्द्यं अपवित्रं त्यजेद्बुधः ॥१८ मधु रोगादिशान्त्यर्थ यो गृह्णाति स मूढधीः । रोगस्य भाजनं भूत्वा सोऽपि याति च दुर्गतिम् ॥१९ समं मद्यामिषेणैव यो भुङ्क्त माक्षिकं शठः । भुङ्क्तं मद्यादिकं सर्वं तेन दुर्गतिदायकम् ॥२० रोगनाशं सुवाञ्छन्ति ये खला मधुना स्वयम् । निवारयन्ति ते नूनं तैलेनैव हुताशनम् ॥२१ कृमिकुलशतपूर्ण सत्त्वघातादिजातं, कुतिगमनहेतुं प्रास्पृशं साधुलोकैः । सकलदुरितखानि क्लेशव्याध्यादिमूलं, त्यज मधु सुखहेतोश्वापवित्रं सुमित्र ॥२२ वाला है, असार है, बुद्धिको नष्ट करनेवाला है, नरकको ले जानेका मार्ग है, पाप और दुःखोंकी जड़ है, व्याकुलता उत्पन्न करनेवाला है और धर्मरूपी वृक्षको जलानेके लिये दावानल अग्निके समान है, इसलिये हे वत्स ! धर्मकी प्राप्तिके लिये तू इस निंद्य मद्यपानका त्याग कर ॥१२।। इसी प्रकार मांस भी महा निंद्य है, जीवोंकी हिंसासे उत्पन्न होता है और अनेक पापोंको खानि है इसलिये इसे केवल मूर्ख लोग ही सेवन करते हैं । विवेकी पुरुष दूरसे ही इसका त्याग कर देते हैं ।।१३।। देख, जो दुष्ट विना किसी कृपा वा दयाके जीवोंको मार कर मांस खाते हैं वे वैरभावका संस्कार हो जानेके कारण परलोकमें उन्हीं जीवोंके द्वारा मारे जाते हैं ॥१४॥ जो नीच केवल स्वादसे ठगे जानेके कारण मांस खाते हैं वे अनेक दुःखोंसे भरे हुए संसाररूपी महासागरमें अवश्य डूबते हैं ॥१५॥ जो मूर्ख मांस भक्षणका तो त्याग कर नहीं सकते और धर्म धारण करना चाहते हैं वे विना नेत्रोंके नाटक देखना चाहते हैं ॥१६॥ यह मांस सेवन नरकके दुःख देनेवाला है, असार है, पापरूपी वृक्षकी जड़ है, अनेक प्रकारके जीव-समूहोंसे भरा हुआ है, उसके छूने मात्रसे ही अनन्त जीवोंका घात होता है, इसलिये धार्मिक सज्जन लोग विषके समान इसका त्याग कर देते हैं। यह पापरूप है और कुगतिका बीज है, इसलिये हे वत्स ! धर्म धारण करनेके लिये तु इसका त्याग कर ॥१७॥ यह मधु वा शहद भी अनेक त्रस जीवोंके उत्पन्न होनेका स्थान है, और मक्खियों का वमन किया हुआ उच्छिष्ट है इसीलिये इसका सेवन करना अनेक पाप और दुःखोंको उत्पन्न करनेवाला है, निन्द्य है और अपवित्र है। बुद्धिमानोंको दूरसे ही इसका त्याग कर देना चाहिये ॥१८॥ जो अज्ञानी रोग आदिको दूर करनेके लिये भी शहदको काममें लाता है वह अनेक रोगों का पात्र होकर नरकादि दुर्गतियोंमें प्राप्त होता है ।।१९।। जो मूर्ख मद्य और मांसके समान शहद को खाता है वह मद्य मांस आदि सबका सेवन करता है और अनेक दुर्गतियोंमें प्राप्त होता है, क्योंकि शहदमें असंख्य जीव रहते हैं ।२०॥ जो मूर्ख मधुके सेवन करनेसे रोगोंका नाश करना चाहते हैं वे अवश्य हो तेलसे अग्निको बुझाना चाहते हैं ॥२१॥ हे मित्र ! यह मधु अनेक छोटे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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