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________________ बारहवाँ परिच्छेद वासुपूज्यं जिनं वन्दे लोकत्रितयपूजितम् । पूजाहं रागनिर्मुक्तं तद्गुणप्रामसिद्धये ॥१ व्याख्याय दर्शनं पूर्व वक्ष्येऽहं प्रतिमां वराम् । भव्यलोकोपकाराय किलकादश संख्यया ॥२ तासां मध्ये प्रवक्ष्यामि प्रथमां प्रतिमां बराम् । दर्शनाल्यां ससम्यक्त्वामष्टमूलगुणान्विताम् ॥३ दर्शनेन समं यस्तु पत्ते मूलगुणाष्टकम् । जिनेदंशनिकः प्रोक्तः स पुमान् व्यसनोजिमतः ॥४ स्वामिन् मूलगुणानद्य सर्वाणि व्यसनानि च । कथय त्वं ममाप्रेऽपि कृपां कृत्वा विशुरुये ॥५ स्वचित्तं निर्मलीकृत्य ज्ञानवैराग्यवासितम् । शृणु तेऽहं प्रवक्ष्यामि मित्र ! मूलगुणादिकम् ॥६ मद्यमांसमधुन्नेव तथोदुंबरपञ्चकम् । अष्टौ मूलगुणाः प्रोक्ता श्रीजिनैगृहमेषिनाम् ॥७ अनेकत्रससम्पूर्ण धर्माविक्षयकारकम् । बुध्यादिनाशकं मचं त्याज्यं वृषजिघृक्षुभिः॥८ पीतमधो बुनिन्धः पथि श्वा पतिते मुखे । मूत्रं कृत्वापि लिह्याच्च यो धिक तस्यास्तु जीवितम् ॥९ मधं पिबति योऽमुत्र मुखं तस्य विदार्य वै। लिपन्ति नारका श्वः तप्तं ताम्रादि रसम् ॥१० मद्यपानमत्यक्त्वा यो धर्ममिच्छति मूढधीः । विना स चरणेनैव मेल्मारोहितं च सः॥११ जो तीनों लोकोंमें पूज्य हैं, पूजाके योग्य हैं और राग-द्वेषसे सर्वथा रहित हैं ऐसे श्री वासुपूज्य भगवान्को में उनके गुणसमूह प्राप्त करनेके लिये नमस्कार करता हूँ॥१॥ यहां तक सम्यग्दर्शनका व्याख्यान हो चुका है। अब भव्य जीवोंका उपकार करनेके लिये ग्यारह प्रतिमाओंका वर्णन करता हूँ ॥२॥ उन ग्यारह प्रतिमाओंमें भी में सबसे पहिले सर्वोत्तम दर्शनप्रतिमाको कहता हूँ। इस दर्शनप्रतिमामें सम्यग्दर्शनके साथ साथ आठ मूलगुणोंका पालन किया जाता है |३|| जो सम्यग्दर्शनके साथ साथ आठ मूलगुणोंका पालन करता है और सातों व्यसनोंका त्याग करता है उस पुरुषको श्री जिनेन्द्रदेव दार्शनिक अथवा दर्शन प्रतिमावाला कहते हैं ॥४॥ प्रश्न हे स्वामिन् ! आज आप कृपाकर मेरे लिये आठ मूलगुण और सातों व्यसनोंका स्वरूप वर्णन करिये ॥५॥ उत्तर-हे मित्र ! तेरा हृदय ज्ञान और वैराग्यसे सुशोभित है इसलिये उसको और भी निर्मल बनाकर सुन । अब में तेरे लिये आठों मूलगुणोंको कहता हूँ॥६॥ मद्य मांस मधुका त्याग और पांचों उदम्बरोंका त्याग ही श्री जिनेन्द्रदेवने गृहरयोंके आठ मूलगुण बतलाए हैं ॥७॥ हे मित्र ! यह मद्य अनेक त्रस जीवोंसे भरा हुआ है, धर्म कर्म का नाशक है और बुद्धिको नष्ट करने वाला है इसलिये धर्मकी इच्छा रखनेवालोंको इसका दूरसे ही त्याग कर देना चाहिये ॥८जो मद्यपान करता है वह चतुर पुरुषोंके द्वारा सदा निन्दनीय गिना जाता है, जिस समय वह मद्य पीकर बेहोश होकर मुख फाड़कर पड़ जाता है तो उस समय कुत्ते भी उसके मुखमें मूत जाया करते हैं और वह उस मूतको बड़े मजेसे चाटा करता है, हाय हाय ! ऐसे जीवनको धिक्कार है ॥॥ जो जीव इस जन्ममें मद्य पोते हैं वे मरकर नरकमें पड़ते हैं और वहाँपर अन्य नारकी उनका मुख फाड़कर जबर्दस्ती उनके मुखमें तपाया हुआ गला हुआ ताम्बेका पानी डालते हैं ॥१०॥ जो मूर्ख मद्यपानका त्याग किये विना ही धर्म धारण करना चाहते हैं वे विना पैरोंके ही मेरुपर्वतपर चढ़ना चाहते हैं ॥११॥ यह मद्यपान नरक निगोद अदि कुगतियोंको प्राप्त कराने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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