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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार २७३ चरणादिवृषं कृत्वा भोगान वाञ्छति योऽशुभान । इहामुत्र भवे सोऽधीराकाङ्क्षादोषभाग्भवेत्॥१०० दृष्ट्वा मुनीश्वराङ्गं यो मललिप्त रुजान्वितम् । घृणां धत्ते भजेत्सोऽपि मलं विचिकित्साभिधम् ॥१०१ कुदृष्टेः कुतपोज्ञानवतेषु यः करोति ना। प्रशंसां जायते तस्य सम्यक्त्वस्य मलेऽशुभे ॥१०२ करोति संस्तवं योऽधीः कुज्ञानकुवतादिजम् । पाखण्डिनामतीचारं लभेत्तदर्शनस्य सः॥१०३ पञ्चातिचारसंत्यक्तं सम्यक्त्वं शशिनिमलम् । ये भजन्ति नरास्तेषां कि नास्ति भुवनत्रये ॥१०४ स्वजनपरमुदारं त्यक्तदेहादिभारं निरुपममतिसारं प्राप्नसंसारपारम् । अरुजमजमशङ्कं सर्वबाधादित्यक्तं, भवति शिवसुखं वै दृष्टियोगान्मुनीनाम् ॥१०५ सकलसुखनिधानं स्वर्गमोक्षकबीजं नरकगृहकपाटं कर्मनागैकसिंहम् । दुरितवनकुदावं सर्वसौख्यादिखानि विगतनिखिलशडू दर्शनं त्वं भजस्व ॥१०६ कर्मपर्वतनिपातनवज्र दुःखदावशमनैकसुमेधम्।। मुक्तिसारसुखदं गुणगेहं दर्शनं भज मित्र ! विमुक्त्यै ॥१०७ जिनवररुचिमूलस्तत्त्वसस्कंधपीठः सकलगुणपयोधिद्धितो वृत्तशाखः । अखिलसमितिपत्रपुष्पभारोऽवतान्नः शिवसुखफलनम्रो दृष्टिसत्कल्पवृक्षः ॥१०८ गुरुओंमें, शास्त्रोंमें, श्रेष्ठ तत्त्वोंमें और अहिंसामय उत्तम धर्ममें शंका करता है उसके शंका नामका पहिला अतिचार लगता है ।।९९।। जो बुद्धिहीन चारित्र पालन कर अथवा और भी कोई धर्मकार्य कर फिर उससे इस लोक सम्बन्धी अथवा परलोक सम्बन्धी भोगोंकी इच्छा करता है वह आकांक्षा दोषका भागी होता है ॥१००। जो मुनियोंके मलिन अथवा रोगी शरीरको देखकर घृणा करता है वह सम्यग्दर्शनके विचिकित्सा नामक दोषको प्राप्त होता है ।।१०१।। मिथ्यादृष्टि, कुतपसो, मिथ्याज्ञानी अथवा मिथ्या व्रतोंको पालन करनेवालेकी जो प्रशंसा करता है उन्हें मनमें अच्छा प्रशंसनीय समझता है उसके सम्यग्दर्शनका अन्यदृष्टिप्रशंसा नामका अशुभ अतिचार लगता है ॥१०२।। जो बुद्धिहीन, मिथ्याज्ञानी अथवा मिथ्याचारित्रवालोंकी वचनसे स्तुति करता है इसके अन्यदष्टिसंस्तव नामका सम्यग्दर्शनका पाँचवाँ अतिचार लगता है ॥१०३।। जो मनुष्य इन पांचों अतिचारोंका त्यागकर निर्मल सम्यग्दर्शनको धारण करते हैं उनके लिये इन तीनों लोकोंमें ऐसा कौन सा पदार्थ है जो प्राप्त न हो सके अर्थात् उनके लिये इस संसारमें अलभ्य पदार्थ कोई नहीं है ॥१०४|| इस सम्यग्दर्शनके प्रभावसे मुनियोंको मोक्षका वह सुख प्राप्त होता है जो स्वजन परिजनोंके सुखसे पारंगत है, शरीरादिके दुःखोंसे रहित है, उपमा रहित है, सारभूत है, संसारसे पारंगत है, ज्ञानावरणादि सब शत्रुओंसे रहित है और सब तरहकी बाधाओंसे दूर है ॥१०५।। यह सम्यग्दर्शन समस्त सुखोंका निधि है, स्वर्ग मोक्षका एक अद्वितीय कारण है, नरकरूपी घरको बन्द कर देनेके लिये किवाड़ोंके समान है, कर्मरूपी हाथोके लिये सिंह है, पापरूपी वनके लिये कुल्हाड़ी है, समस्त सुखोंकी खानि है और सब तरहको शंकाओंसे रहित है। हे वत्स ! ऐसे इस सम्यग्दर्शनको तू धारण कर ||१०६।। हे मित्र ! यह सम्यग्दर्शन कर्मरूपी पर्वतको चूर चूर करनेके लिये वज्रके समान है, दुःखरूपी दावानल अग्निको शांत करनेके लिये मेघकी धाराके समान है, मोक्षके सारभूत सुखको देनेवाला है और अनेक गुणोंका घर है अतएव मोक्ष प्राप्त करनेके लिये तू इसे धारण कर ॥१०७। यह सम्यग्दर्शन मोक्ष-सुख देनेवाले एक सर्वोत्तम कल्पवृक्षके समान है। भगवान् जिनेन्द्रदेवमें श्रद्धा रखना हो इसकी जड़ है, जीवादिक तत्त्वोंपर श्रद्धान रखना इसका Jain Education Intational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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