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________________ २७२ श्रावकाचार-संग्रह सुगन्धीकृतदिग्भागनिःश्वासा चाल्लक्षणाः । धातुनेत्रपरिस्पन्दत्यक्तरूपाः शुभाशयाः ॥८७ नखकेशादिसंहीना दिव्यस्त्रीभोगसंगताः । सर्वामरता नित्यं स्थिता देवसभादिषु ॥८८ गीतनृत्यादिसंसक्ताः सौख्यसागरमध्यगाः । इन्द्रा भवन्ति ते स्वर्गे ये तत्त्वरुचयो नराः ॥८९ किमत्र बहनोक्तेन सम्यक्त्वाद्यत्सुखं वरम् । देवलोके नृलोके च तत्सवं देहिनां भवेत् ॥९० एतत्समयसर्वस्वमेतत्सिद्धान्तजीवितम् । एतन्मोक्षतरोर्बोज सम्यक्त्वं विद्धि तत्वतः ॥९१ केचित्सदृष्टयो भव्याः स्वर्ग गत्वा सुखाकरम् । मनुष्यत्वं पुनः प्राप्य निर्वृति यान्ति संयमात् ॥९२ केचिच्छ्रीजिनभक्तया हि भोगान् भुक्त्वा नृदेवजान् । सप्तष्टभवपर्यन्तं पश्चाद्यान्ति शिवालयम् ॥९३ त्यक्त्वा देवगति सारां नृगतिं च सुखाकराम् । अन्या गतिर्भवेनैव सम्यग्दृष्टिनृणां भुवि ॥९४ अतिचारविनिर्मुक्तं यो धत्ते दर्शनं सुधीः । तस्य मुक्तिः समायाति नाकसौख्यस्य का कथा ॥९५ प्रभो सर्वानतीचारान् दयां कृत्वा निरूपय । तेषां त्यागान्ममाद्यैव सम्यक्त्वं निर्मलं भवेत् ॥९६ स्वचित्तं सन्निधायोच्चैः स्ववशे श्रावक शृणु । अतीचारान् प्रवक्ष्येऽहं तत्त्यागाय विरूपकान् ॥९७ शङ्का काङ्क्षा भवेत्पापा विचिकित्सा तथा परा । अन्यदृष्टिप्रशंसा च संस्तवो हि कुलिङ्गिनाम् ॥९८ तीर्थेशे सद्गुरौ शास्त्रे सप्ततत्त्वे वृषे च यः । शङ्कां करोति यो मूढः शङ्कादोषं लभेत सः ॥९९ मानसिक अमृताहारसे सदा तृप्त रहते हैं, रोग क्लेश आदि दुःखोंसे सदा रहित होते हैं, दिव्य वस्त्रोंसे सदा सुसज्जित रहते हैं और मेरुपर्वतके समान सदा निष्कंप अचल रहते हैं । वे इन्द्र अपने उच्छ्वाससे समस्त दिशाओंको सुगन्धित करते रहते हैं, उनके शरीरपर सुन्दर लक्षण रहते हैं, उनका शरीर धातु उपधातुओंसे रहित होता है, उनके नेत्रोंकी टिमकार नहीं लगती, वे बड़े रूपवान और शुभ हृदयके होते हैं। उनके नख केश नहीं बढ़ते, दिव्य स्त्रियोंके भोगोंसे सदा सुखी रहते हैं, सब देव उनको नमस्कार करते हैं इस प्रकार वे देवोंकी सभामें विराजमान होकर आनन्द किया करते हैं, गीत नृत्य आदि सुख देनेवाले कार्योंमें आसक्त रहते हैं और सुख-सागरमें सदा डूबे रहते हैं ।।८५-८९॥ हे मित्र ! बहुत कहनेसे क्या लाभ है थोड़ेसे में इतना समझ लेना चाहिये कि स्वर्गलोकमें और मनुष्यलोकमें जो कुछ उत्तमसे उत्तम सुख हैं वे सब सम्यग्दृष्टी जीवोंको ही प्राप्त होते हैं ||१०|| यह विधिपूर्वक ग्रहण किया हुआ सम्यग्दर्शन हो समस्त शास्त्रोंका सर्वस्व है, यही सिद्धांतका जीवन है और यही मोक्षरूपी वृक्षका बीज है ॥९॥ इस संसार में कितने ही सम्यग्दृष्टी भव्य तो ऐसे हैं जो पहले सुख देनेवाले स्वर्गों में देव होते हैं फिर वहाँसे आ मनुष्य होकर संयम धारण कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं तथा भगवान् जिनेन्द्रदेवके भक्त कितने ही भव्य ऐसे हैं जो मनुष्य और देवोंके सुख भोगकर सात आठ भवके बाद मोक्ष प्राप्त करते हैं ।।९२-९३।। इस संसारमें सम्यग्दृष्टी जीवोंको सुख देनेवाली देवगति अथवा मनुष्यगतिको छोड़कर और कोई गति नहीं होती है ॥९४॥ जो बुद्धिमान् इस सम्यग्दर्शनको अतिचार रहित पालन करता है उसके लिये मोक्ष अपने आप आ जाती है फिर भला उसके लिये स्वर्गके सुखोंकी तो बात ही क्या है ।।९।। प्रश्न-हे प्रभो! कृपाकर मेरे लिये सम्यग्दर्शनके उन सब अतीचारोंका निरूपण कीजिये जिससे उनका त्याग कर देनेपर आज ही मेरा सम्यग्दर्शन निर्मल हो जाय !॥९६॥ उत्तर-हे वत्स ! हे श्रावकोत्तम ! तू अपने चित्तको अपने वशमें करके सुन, अब मैं सम्यग्दर्शनको मलिन करनेवाले अतिचारोंको त्याग करनेके लिये कहता हूँ ॥९७॥ शंका, आकांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि प्रशंसा और अन्यदृष्टि संस्तव ये पांच सम्यग्दर्शनके अतिचार गिने जाते हैं ॥९८॥ जो अज्ञानी तीर्थंकरोंमें, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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