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________________ २७. श्रावकाचार-संग्रह ये भ्रष्टा दर्शनाच्च ते च भ्रष्टा लोकत्रये मताः । नैव यास्यन्ति निर्वाणं कदाकालेपि तद्विना ॥६३ सम्यक्त्वालंकृता जीवाः चारित्रादिपरिच्युताः । कदाचित्संयमं प्राप्य ये ते गच्छन्ति निर्वृतिम् ॥६४ नेत्रहीना यथा जीवा रूपं जानन्ति नैव च । दृष्टिहीनास्तथा ज्ञेया देवधर्म गुणागुणम् ॥६५ त्यक्तप्राणं यथा देहं मृतकं कथ्यते जनः । दृष्टिहीनो नरस्तद्वच्चलन् मृतक उच्यते ॥६६ नमस्कारादिकं ज्ञानं सम्यक्त्वेन समं हि यः । जानाति सोऽपि संज्ञानी प्रोक्तः श्रीगौतमादिभिः ॥६७ एकादशाङ्गयुक्तोऽपि यो मुनिः सोऽपि तद्विना । अज्ञानी कोतितः सद्धिरभव्यसेनवत्सदा ॥६८ ज्ञानचारित्रयोर्बीजं दर्शनं मुक्तिसौख्यदम् । अनर्घ्यमुपमात्यक्तं गृहाण त्व सुखाय तत् ॥६९ धन्यास्ते भुवने पूज्या वन्द्या शस्या बुधोत्तमैः । दृष्टिरत्नं स्वस्वप्नेऽपि मलपार्चे कृतं न यैः ॥७० सम्यग्दृष्टिः स्फुट नीचकुलं नीचति च ना। त्यक्त्वा सुदेवमानुष्यं लब्ध्वा मुक्तिवरो भवेत् ॥७१ दृष्टियुक्तो नरः स्वामिन् यां गति यत्कुलं न च । याति तत्सर्वमेवाहं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥७२ एकाग्रचेतसा मित्र शृणु त्वं कथयाम्यहम् । माहात्म्यं दर्शनस्यैव सारसौख्याकरस्य भो ॥७३ सम्यग्दर्शनसंशुद्धा ये बुधा यान्ति न क्वचित् । श्वभ्रं तिर्यग्गति स्त्रीत्वं क्लीबत्वं कुकुलं च ते ॥७४ बधिरत्वं च खञ्जत्वं वामनत्वं च मूकताम् । अन्यत्वं विकलाङ्गत्वमल्पायुस्त्वं दरिद्रताम् ॥७५ ।। द्वारा पूज्य होता है, तथापि विना सम्यग्दर्शनके वह प्रशंसनीय नहीं गिना जाता ॥६२।। जो जीव सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट हैं वे तीनों लोकोंमें भ्रष्ट हैं क्योंकि विना सम्यग्दर्शनके वे किसी समयमें भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते ॥६३|| परन्तु जो जीव सम्यग्दर्शनसे सुशोभित हैं और चारित्र आदिसे रहित हैं वे किसी समय भी संयमको पाकर अवश्य मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥६४॥ जिस प्रकार नेत्रहीन मनुष्य रूपको नहीं जान सकता उसी प्रकार सम्यग्दर्शन-रहित जीव भी न देवको जान सकता है, न धर्म अधर्मको जानता है और न गुण अवगुणोंको जान सकता है ।।६५।। जिस प्रकार प्राणरहित शरीरको लोग मृतक कहते हैं उसी प्रकार सम्यग्दर्शन-रहित मनुष्य चलता फिरता हुआ जीवित होकर भी मृतक कहलाता है ॥६६|| सम्यग्दर्शनके साथ साथ केवल नमस्कार मंत्र आदिका ज्ञान होनेपर वह जीव सम्यग्ज्ञानी कहलाता है ऐसा श्री गौतम आदि गणधरोंने कहा है ॥६७॥ परन्तु ग्यारह अंगोंको जाननेवाला मुनि भी बिना सम्यग्दर्शनके अभव्यसेन मुनिके समान चतुर पुरुषोंके द्वारा सदा अज्ञानी कहलाता है ॥६८॥ हे भव्य जीव, यह सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्रका बीज वा कारण है, मोक्षके सुख देनेवाला है, अमूल्य है और उपमा-रहित है इसलिये सुख प्राप्त करनेके लिये इसे अवश्य धारण करना चाहिये ॥६९।। जिन्होंने सम्यग्दर्शनको पाकर स्वप्नमें भी उसे मल-दोषके समीप नहीं रखा है वे ही मनुष्य संसारमें धन्य हैं, पूज्य हैं, वंदनीय हैं, प्रशंसनीय हैं और वे ही विद्वानोंमें सर्वोत्तम विद्वान् हैं ॥७०॥ इस सम्यग्दर्शनके प्रभावसे यह जीव नीच कुल और नीच गतिको छोड़कर श्रेष्ठ देव मनुष्य होकर मुक्तिलक्ष्मीका स्वामी ही होता है ।।७१॥ प्रश्न-हे स्वामिन् ! सम्यग्दृष्टी पुरुष किस किस नीच गतिको और किस किस नीच कुलको प्राप्त नहीं होता, सो मैं आपसे सुनना चाहता हूँ ॥७२।। उत्तर-हे मित्र ! चित्त लगाकर सुन, मैं अब सारभूत सुखको खानि ऐसे इस सम्यग्दर्शनकी महिमा कहता हूँ ॥७३॥ जो विद्वान् शुद्ध सम्यग्दर्शनसे सुशोभित हैं वे चाहे व्रत धारण न भी करें तो भी वे नरकगति और तियंच गतिमें उत्पन्न नहीं होते, स्त्री-पर्याय तथा नपुंसक-पर्यायको धारण नहीं करते, खोटे कुलमें उत्पन्न नहीं होते, बहिरे, गंजे, गूंगे, बौने, अन्धे नहीं होते, दरिद्री नहीं होते, उनकी आयु थोड़ी नहीं होती, www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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