SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार २६९ सम्यक्त्वान्नापरं मित्रं न धर्मः सार एव च । हितं न पितृमात्रादिकुटुम्ब न सुखं न च ॥५१ ।। सम्यक्त्वालंकृतः पूज्यो मातङ्गोऽपि सुरैर्भवेत् । सम्यक्त्वेन विना साधुनिन्दनीयः पदे पदे ॥५२ गृहीत्वा दर्शनं येऽपि त्यजन्ति घटिकाद्वयम् । कियत्काले न ते मुक्ति यास्यन्त्यत्र न संशयः ॥५३ सम्यक्त्वं यस्य भव्यस्य हस्ते चिन्तामणिर्भवेत् । कल्पवृक्षो गृहे तस्य कामगव्यनुगामिनी ॥५४ प्राप्तं जन्मफलं तेन सम्यक्त्वं येन स्वीकृतम् । निधानमिव लोकेऽस्मिन् भव्यजीवेन सौख्यदम् ॥५५ एकाकी त्यहिंसः स वनस्थो दर्शनं विना । शीतोष्णादिसहो नित्यं तरुवन्नैव सिद्धयति ॥५६ सम्यक्त्वेन समं किञ्चित्पुण्यं यत् क्रियते जनः । तत्सर्व मुक्तिबीजं स्यादानपूजावतादिजम् ॥५७ सम्यक्त्वेन विना किंचित्पुण्यं यत्क्रियते जनैः । तत्सर्वं विफलं च स्यादानपूजावतादिकम् ॥५८ दृष्टिहीनः पुमान् किंचिद्वतदानादिकं सकृत् । कृत्वा लब्ध्वा च भोगं हि भवारण्ये भ्रमेत्पुनः ॥५९ सम्यक्त्वस्य बलाज्जीवा निघ्नन्ति कर्म यत्पुनः । तद्विना न तदाघोरैस्तपस्तीवर्मुनीशिनः ॥६० वरं गार्हस्थ्यमेवाह सम्यत्क्वादिविभूषितम् । व्रतदानादिसंपूर्ण भाविनिर्वाणकारणम् ॥६१ जिनरूपं सुरैः पूज्यं सर्वसंगविजितम् । मुनीनां व्रतसंयुक्तं तद्विना नैव शस्यते ॥६२ हुआ, न अब है और न आगे होगा ॥५०॥ सम्यग्दर्शनके समान न कोई मित्र है, न धर्म है, न सार पदार्थ है, न हितकारक है, न कुटुम्ब है, न सुख है ॥५१।। इस सम्यग्दर्शनसे सुशोभित चांडाल भी देवके समान है और विना सम्यग्दर्शनके साधु भी स्थान स्थान पर निन्दनीय गिना जाता है ।।५२।। जो जीव सम्यग्दर्शनको पाकर दो घड़ीके लिये भी छोड़ देते हैं वे कितने ही काल तक तो मोक्ष जानेसे रुक ही जाते हैं इसमें कोई सन्देह नहीं ॥५३।। जिस भव्यके पास सम्यग्दर्शन है उसके हाथमें चिन्तामणि रत्न समझना चाहिये तथा उसके घर में कल्पवक्ष समझना चाहिये और कामधेनू उसके पीछे पीछे चलनेवाली समझना चाहिये ॥५४॥ यह सम्यग्दर्शन इस संसार में एक निधिके समान है और अत्यन्त सुख देनेवाला है इसलिये जिस भव्य जीवने इसको प्राप्त कर लिया उसने जन्म लेनेका फल पा लिया ॥५५॥ यदि सम्यग्दर्शन न हो तो साधु होकर भी यह मनुष्य वृक्षके समान ही समझना चाहिये क्योंकि जिस प्रकार वृक्ष अकेला रहता है उसी प्रकार वह साधु भी अकेला रहता है । वृक्ष हिंसा नहीं करता, वह साधु भी हिंसा नहीं करता, वृक्ष भी वनमें रहता है, साधु भी वनमें रहता है और वृक्ष भी शीत, उष्ण आदिकी बाधाएँ सहता है, साधु भी शीत उष्ण आदिकी बाधाएँ सहता है इसलिये जिस प्रकार वृक्षको मोक्ष प्राप्त नहीं होती उसी प्रकार सम्यगदर्शन रहित साधुको भी मोक्ष प्राप्त नहीं होती ॥५६।। सम्यक्त्वके साथ यदि मनुष्य यत्-किंचित् भी पुण्य करते हैं तो वह दान-पूजा व्रत आदिसे उत्पन्न हुआ पुण्य मुक्तिका बीज होता है ।।५७॥ सम्यग्दर्शनके विना यह मनुष्य दान पूजा व्रत आदि जो कुछ पुण्यकर्म करता है वह सब व्यर्थ हो जाता है ।।५८|| बिना सम्यग्दर्शनके यह मनुष्य एकादिबार व्रत दान आदि करता है परन्तु उसके फलस्वरूप थोड़ेसे भोग पाकर फिर वह सदा इस संसाररूपी वनमें परिभ्रमण किया करता है ।।५९/i इस सम्यग्दर्शनके वलसे मुनिराज जिन कर्मोंको क्षणभरमें नष्ट कर देते हैं उनको विना सम्यग्दर्शनके घोर और तोत्र तपश्चरण करनेपर भी मुनिजन कभी नष्ट नहीं कर सकते ॥६॥ सम्यग्दर्शनसे सुशोभित होनेवाला गृहस्थधर्म ही अच्छा, क्योंकि सम्यग्दर्शन सहित गृहस्थधर्म व्रत दान आदि शुभ कार्योंसे परिपूर्ण होता है और भावि मोक्षका कारण होता है ।।६१।। सब प्रकारके परिग्रहोंसे रहित और व्रतोंसे सुशोभित ऐसा मुनियोंका अरहंतोंके समान निग्रंथ रूप यद्यपि देवोंके For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy