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________________ ३५४ श्रावकाचार-संग्रह तिष्ठन्ति निस्पृहाचं ते त्यक्तदेहा मुनीश्वराः । ध्यानारूढा गुणैर्युक्ता इति मत्वा नृपो गतः ॥१२ उपहासः कृतश्च तैर्मन्त्रिभिर्दुष्ट मानसैः । बलीवर्दा न जानन्ति दम्भमौनेन संस्थिताः ॥१३ गच्छद्भिस्तैर्महादुष्टैरग्रे दृष्टो मुनीश्वरः । चर्यां कृत्वा समागच्छन् श्रुतसागरसंज्ञकः ॥१४ उक्तं चायं बलीवर्दस्तरुणो याति साम्प्रतम् । पूरयित्वोदरं स्वस्य मूर्खो ज्ञानादिभिश्च्युतः ॥१५ तच्छ्र ुत्वा मुनिना तेऽपि वादं कृत्वा विनिर्जिताः । नीत्वा राजसभामध्ये सत्स्याद्वादनिरुक्तिभिः ॥१६ तेनागत्य गुरुं नत्वा स्ववार्ता कथिता पुनः । गुरुणोक्तं त्वया धीमन् संघस्योपद्रवः कृतः ॥ १७ तच्छ्र ुत्वा तं प्रति प्राह सोऽपि स्वामिन् कथं हि सः । विनश्यति मुनीनां त्वं कृपां कृत्वा निरूपय ॥१८ यदि गत्वा त्वमेकाकी वादस्थाने हि तिष्ठसि । संघस्य जीवितव्यं ते शुद्धिश्चैव भविष्यति ॥१९ ततो गत्वाप्यसौ तत्र कायोत्सर्गेण संस्थितः । धीरस्त्यक्तभयो रात्रौ ध्यानारूढोऽचलो यथा ॥२० गच्छद्भिस्तैर्महाक्रुद्धैः संघं मारयितुं निशि । मानभङ्गान्मुनि दृष्ट्वा मार्गे ब्रूते परस्परम् ॥२२ मानभङ्गः कृतो येन स हन्तव्यो न चापरे । चतुभिर्युगपत्खड्गा उद्गीर्णा तद्वधाय तैः ॥२२ जिनधर्मप्रभावेन मुनिमाहात्म्ययोगतः । पुरदेवतया तत्र कोलितास्ते तथैव च ॥२३ ।।१०-११।। यह देखकर राजाने समझा कि शरीरसे ममत्व छोड़े हुए ये निस्पृह और अनेक गुणों से विराजमान मुनिराज अपने ध्यानमें लगे हुए हैं यह समझकर वह वापिस लौट गया ||१२|| परन्तु उन दुष्ट मन्त्रियोंने उनकी हँसी उड़ाई और कहा कि ये कोरे बैल हैं, कुछ जानते नहीं । इन्होंने केवल छलकपट कर मौन धारण कर लिया है || १३|| आगे जाते हुए उन मन्त्रियों को एक श्रुतसागर नामके मुनि मिले जो वर्या करके वापिस लौट रहे थे । उन्हें देखकर उन दुष्ट मन्त्रियोंने कहा कि एक यह भी तरुण बैल आ रहा है । यह भी मूर्ख और ज्ञानादिकसे सर्वथा रहित है और यह अभी अपना पेट भरकर आया है ।।१४-१५ ।। यह सुनकर मुनिराजने राजसभाके मध्य में उन चारों मन्त्रियों के साथ शास्त्रार्थ किया' और अनेकांतकी युक्तियोंस उन सबको पराजित किया ||१६|| फिर अपने संघ में आकर अपने गुरुराजको नमस्कार किया और मार्ग में होनेवाले शास्त्रार्थकी सब कथा कह सुनाई । उसे सुनकर आचार्यने कहा कि हे विद्वन् ! आपने संघके लिये एक उपद्रव खड़ा कर दिया ॥ १७ ॥ आचार्यकी बात सुनकर श्रुतसागरने प्रार्थना की कि हे स्वामिन् ! वह मुनियोंका उपद्रव किस प्रकार दूर हो सकता है ? आप कृपाकर मुझसे कहिये || १८ || तब आचार्य ने कहा कि जहाँपर शास्त्रार्थ किया है वहीं जाकर यदि आप आज रहें तो संघका जीवन बच सकता है और आपकी शुद्धि भी हो जायगी || १९|| आचार्यकी यह आज्ञा सुनकर वे धीरवीर मुनिराज वहोंपर गये और निर्भय होकर कायोत्सर्ग धारण कर पर्वत के समान निश्चल होकर उस रातको वहीं पर विराजमान रहे || २० || शास्त्रार्थमें हार जाने और मान भंग हो जानेके कारण उन चारों दुष्ट मन्त्रियोंने क्रोधित होकर सब संघके मारनेका विचार किया । वे इस काम के लिये रात में निकले परन्तु मार्ग में उन मुनिराजको देखकर परस्पर कहने लगे कि हम लोगों का मानभंग तो इसने किया है इसलिये इसे ही मारना चाहिये, दूसरोंको नहीं । यह कहकर चारों मंत्री एक साथ तलवार उठाकर मारनेके लिये तैयार हुए ।।२१ - २२|| परन्तु जैनधर्मके प्रभावसे और मुनिराज के माहात्म्यसे नगरके देवताने वे चारों ही मंत्री उसी प्रकार ( मारने के लिये हाथमें तलवार १. मुनिराज श्रुतसागर आहारको गये थे मन्त्रियोंके साथ बातचीत की थी । Jain Education International और उन्होंने आचार्यकी आज्ञा सुनी नहीं थी इसलिये उन्होंने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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