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________________ २४९ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार ये वदन्ति स्वयं स्वस्य गुणान् दोषान् पुननं च । गदंभादिकुयोनि ते श्वभ्रं वा यान्ति दुद्धियः ॥२५ परनिन्दां प्रकुर्वन्ति गुणान् प्रच्छादयन्ति ये। ते मूढा श्वभ्रगा ज्ञेया भूरिपापावृताः खलाः ॥२६ विमलगुणगरिष्ठस्तीर्थनाथस्य भक्तो, विदितपरमतत्त्वो धर्मदानादियुक्तः । प्रकटितगुणसारो दर्शनस्यैव वन्द्याद्रहितसकलदोषोऽत्रैव जैनेन्द्रभक्तः ॥२७ वारिषेणोऽतिविख्यातो यः स्थितीकरणे गुणे । प्रवक्ष्यामि कथां तस्य तद्गुणग्रामसिद्धये ॥२८ मगधाख्ये शुभे देशे पुरे राजगृहेऽभवत् । श्रेणिको भूपतिस्तस्य राज्ञी स्याच्चेलिनी शुभा ॥२९ वारिषेणस्तयोर्जातः सुतः सद्दर्शनान्वितः । श्रावकाचारसम्पन्नो धीरो जैनो महाशयः ॥३० एकदा स चतुर्दश्यां कृत्वा सत्तोषधं सुधीः । कायोत्सर्ग समादाय श्मशाने संस्थितो निशि ॥३१ तस्मिन्नेवाह्नि प्रोद्याने विलासिन्या विलोकितः । गतया मुग्धसुन्दर्या वै हारोऽतिमनोहरः ॥३२ स्थितः श्रीकीतिश्रेष्ठिन्या हृदि पुण्यफलेन सा। चिन्तयामास कि मेऽहो जीवितव्येन साम्प्रतम् ॥३३ हारेणापि विना लोके चेति चिन्ताकुलापि सा । गेहं गत्वा स्थिता शोकात्पतित्वा शयनोदरे ॥३४ तदासक्तेन विद्युच्चौरेणागत्य प्ररूपितम् । रात्रावेवं स्थिता कि हे प्रिये चिन्तातुराऽसि वै ॥३५ तयोक्तं यदि मे नाथ ददासि दिव्यभूषणम् । हारं श्रीकोतिष्ठिन्या भर्ता त्वं चात्र नान्यथा ॥३६ और दूसरोंके श्रेष्ठ गुणोंको सदा प्रगट करते रहते हैं वे इन्द्रादिकके सुख भोगकर अन्तमें मोक्ष पद प्राप्त करते हैं ॥२४॥ जो मूर्ख अपने गुणोंको अपने आप कहते फिरते हैं और अपने दोषोंको कभी प्रगट नहीं करते वे गधे आदिकी कुयोनियोंमें जन्म लेते हैं अथवा नरकमें जाकर दुःख भोगते हैं ।।२।। जो मनुष्य दूसरोंकी निन्दा करते रहते हैं और दूसरोंके गुणोंको ढंकते रहते हैं वे दुष्ट सबसे अधिक पापी हैं । उन मूर्योको नरकमें ही स्थान मिलता है ।।२६॥ वह श्री जिनेन्द्रभक्त सेठ अनेक निर्मल गुणोंसे सुशोभित था, तीर्थंकर परमदेवका भक्त था, परम तत्त्वका जानकार था, दान धर्म आदि क्रियाओंमें निपुण था, सम्यग्दर्शनके उत्तम गुण प्रगट करनेमें चतुर था और निन्दा आदि सब दोषोंसे रहित था ॥२७॥ इसी प्रकार सम्यग्दर्शनके स्थितिकरण गुणमें वारिषेण प्रसिद्ध हुआ है। अब मैं सम्यग्दर्शन के गुण बढ़ानेके लिये उसको कथा कहता हूँ ॥२८॥ मगध देशके राजगृह नगरमें राजा श्रेणिक राज्य करता था। उसकी पट्टरानीका नाम चेलना था ॥२९॥ उन दोनोंके वारिषेण नामका पुत्र था जो कि सम्यग्दृष्टी था, श्रावकोंके सब व्रतोंको पालन करता था, धीर-वीर था, जिनेन्द्रदेवका भक्त था और उदार हृदय था ॥३०॥ किसी एक दिन चतुर्दशी पर्वके दिन उसने प्रोषधोपवास किया था इसलिये उस रातको उस बुद्धिमानने स्मशानमें जा कर कायोत्सर्ग धारणकर ध्यान लगाया था ॥३१।। उसी दिन दिनके समय किसी बागमें सेठ श्रीकीर्ति वायु सेवनके लिये आया था। पुण्य कर्मके उदयसे उसके गले में एक अत्यन्त मनोहर हार पड़ा था। वह हार मुग्धसुन्दरी नामकी किसी वेश्याने देखा। उस हारको देखकर वह विचार करने लगी कि इस हारके बिना जीना व्यर्थ है। यही सोचती विचारती वह घरको चली गई और शोक करती हुई शय्यापर जा लोटी ॥३२-३४।। विद्युच्चर नामका एक चोर उस वेश्यापर आसक्त था । वह रातको उसके घर आया और उस वेश्याको रातमें भी इस प्रकार शोकाकुलित देखकर पूछने लगा कि हे प्रिये ! तू तू आज किस चिन्तामें डूब रही है ॥३५॥ इसके उत्तरमें उस वेश्याने कहा कि हे स्वामिन् ! यदि आप सेठ श्रीकीर्तिके गलेमें पड़ा हुआ दिव्य हार लाकर मुझे दें तो में आपको अपना स्वामी बनाऊंगी, अन्यथा नहीं ॥३६॥ यह सुनकर विद्युच्चरने उसे धीरज बंधाया और आधी रातके ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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