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श्रावकाचार-संग्रह बनिच्छन्नपि तत्पार्चे स्थापितो मायया खलः। मणिरक्षार्थमेवासो श्रेष्ठिना धर्मसिद्धये ॥१३ . एकवा क्षुल्लकं पृष्ट्वा श्रेष्ठी निर्गत्य संस्थितः । पुरादबहिः समुद्राद्रियात्रायां गमनोचतः ॥१४ सोऽपि गहजनं व्यग्रं नेतुं वस्वादिकं स्वयम् । परिज्ञायार्द्धरात्रौ तां मणिमादाय निर्गतः ॥१५ गच्छन्तं तस्करं तस्मादालोक्य मणितेजसा । आरब्धो धर्तुमेवासौ कोट्टपालैर्भयंकरैः ॥१६ पलायितुं क्षमो नैव श्रेष्ठिनः शरणं पुनः । प्रविष्टो रक्ष रक्षेति मम दुष्टो वदन्नसौ ॥१७ कोलाहलं समाकर्ष तेषां विज्ञाय तस्करम् । तं शासनोपहासस्यालोच्य प्रच्छादनाय सः ॥१८ ब्रूते भद्वचनेनैव नीतं रत्नमनेन भोः ! । कृतं भवद्भिश्चानिष्टं न चौरो घोषणा कृता ॥१९ ततस्ते तं नमस्कृत्य गताः सर्वे स श्रेष्टिना । निर्वाटितोऽतिवेगेन धर्मतत्परचेतसा ॥२० सदृष्टयालंकृतः श्रेष्ठी व्रतज्ञानगुणान्वितः । विचारचतुरो धीमान् स्वर्गमुक्त्यादिकं व्रजेत् ॥२१ एवं सदृष्टिना बालाज्ञानाशक्तजनाश्रयात् । आगतस्यापि दोषस्य कर्तव्यं छादनं वृषे ॥२२ स्वस्य निन्दां प्रकुर्वन्ति स्तुवन्ति परगुणान् ये । धन्यास्ते यान्ति स्वर्लोक क्रमान्मुक्त्यालयं बुधाः ॥२३
परदोषान् व्यपोहन्ति प्रकटोकृत्य सद्गुणान् ।
सौख्यं शक्रादिजं ये ते भुक्त्वा यान्ति शिवास्पदम् ॥२४ सब तरहसे सन्तुष्ट किया और अपने घर लाकर श्री पार्श्वनाथकी प्रतिमाके दर्शन कराये ॥१०-१२॥ सेठने उससे चैत्यालयमें रहनेकी प्रार्थना की परन्तु उसने कपटपूर्वक अपनी अनिच्छा प्रकट की। तथापि उस सेठने धर्मकी वृद्धि होनेके लिये उस मणिकी रक्षार्थ उस दुष्ट क्षुल्लकको वहाँ ठहरा लिया ॥१३॥ - किसी एक दिन सेठने समुद्रयात्रा करनेका विचार किया और उस क्षुल्लकसे आज्ञा लेकर घरसे निकलकर नगरके बाहर ठहर गया ||१४|| उस रातको सेठके अन्य कुटुम्बी लोग भी अपना अपना सामान सम्भालने में लगे हुए थे। ऐसे समयको देखकर वह चोर क्षुल्लक भी आधी रातके समय उस मणिको लेकर चलता बना ।।१५।। वह मणिको लेकर जा रहा था परन्तु उस मणिके प्रकाशसे कोटवालको दिखाई पड़ ही गया, इसलिये वह भयंकर कोटवाल पकड़नेके लिये उसके पीछे दौड़ा ॥१६|| वह क्षुल्लक और अधिक दौड़ न सका। उसने देखा कि मैं अब किसी तरह बच नहीं सकता तब वह दुष्ट उसी सेठको शरणमें पहुंचा और कहने लगा कि इस समय रक्षा कीजिये ॥१७॥ उधर सेठने पहरेदारोंका चोरके भागनेका कोलाहल भी सून रक्खा था इसलिये उसने उसे चोर तो समझ लिया परन्तु एक क्षुल्लक वेषधारीको चोर कहने में जैनधमकी हंसी होगी यह समझकर उसने उस विषयको दबाना ही उचित समझा ॥१८॥ सेठने आये हुए कोतवाल और अन्य लोगोंसे यही कहा कि यह तो मेरो आज्ञासे ही इस रत्नको लाया है । आप लोगोंने यह बहुत बुरा किया जो एक क्षुल्लकके लिये चोरकी घोषणा को ॥१९॥ सेठको यह बात सुनकर वे सब लोग उसे नमस्कार कर चले गये। उनके चले जानेके बाद धर्ममें सदा तत्पर रहनेवाले सेठने उस दुष्टको शोघ्र ही अपने यहाँसे निकाल दिया ।२०।। बुद्धिमान् सम्यग्दर्शनसे सुशोभित व्रत और ज्ञानादि गुणोंसे विभूषित और विचार करने में अत्यन्त चतुर वह सेठ आगे स्वर्ग मोक्षके सुखोंको प्राप्त होगा ॥२१।। इसलिये सम्यग्दृष्टि पुरुषोंको चाहिये कि वे बालक, अज्ञानी अथवा असमर्थ लोगोंके आश्रयसे होनेवाले धर्मके दोषोंको सदा ढकते रहें ॥२२॥ जो विद्वान् अपनी निन्दा करते हैं और दूसरोंके गुणोंकी प्रशंसा करते हैं वे मनुष्य संसारमें धन्य हैं। वे अवश्य ही स्वर्गके सुखोंको भोगकर अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥२३॥ जो मनुष्य अपने मुंहसे दोषोंको कभी नहीं कहते
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