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प्रश्नोत्तरश्रावकाचार अपनीय तदुच्छिष्टं तं प्रक्षाल्य करोति सा । निन्दा स्वस्य मया दत्तः आहारोऽद्य विरूपकः ॥५१ रेवत्या वचनं श्रुत्वा त्यक्त्वा रूपादिविक्रियाम् । तोषात्प्रशस्य वृत्तान्तं पूर्व च कथितं स्वयम् ॥५२ धर्मवृद्धिगु रोस्तस्याः प्रतिपाद्य प्रकाश्य च । अमूढत्वगुणं लोके गतः स्थानं पुननिजम् ॥५३ सद्राज्यं वरणो राजा दत्वा दीक्षां समाददौ । स्वशिवकोतिपुत्राय कर्मनि शहेतवे ॥५४ " कृत्वा तपः सुखाधारं त्यक्त्वा देहं समाधिना । स्वर्गे माहेन्द्रसंज्ञे स देवो जातो मद्धिकः ॥५५. रेवती तप आदाय दुष्करं भवभीतिदम् । हत्वा स्त्रीलिङ्गमेवाभूद् ब्रह्मस्वर्गेऽमरो वरः ॥५६ . दशसागरपर्यन्तमायुर्भुक्त्वा सुखं क्रमात् । हत्वा कर्माणि निर्वाणं गमिष्यति न चान्यथा ॥५७ अन्ये च बहवः सन्ति प्रामूढत्वगुणाश्रिताः । कस्तां च गदितुं शक्यो ज्ञातव्यास्ते जिनागमे ॥५८ मूढत्वं विबुधैस्त्याज्यं गुरुधर्मामरादिषु । दानपूजादिशास्त्रेषु विचारचतुरैः सदा ॥५९ अमूढत्वगुणं लोके स्वर्गमुक्तिसुखाकरम् । भज त्वं हि विशुद्धधात्र दर्शनं च गुणाप्तये ॥६०
अमलगुणविभूषा त्यक्तमदादिदोषा, जिनचरणविभक्ता संश्रिता श्रीसुधर्मे।
जिनवचनवियुक्ता रेवती संयमाढया, सकलसुखनिधाने ब्रह्मस्वर्गेऽमरोऽभूत् ॥६१ इति श्रीभट्टारकसकलकीतिविरचिते प्रश्नोत्तरश्रावकाचारे निर्विचिकित्सामूढत्वगुणव्यावर्णनो
उद्दायननृप-रेवतीराज्ञीकथाप्ररूपणो नाम सप्तमः परिच्छेदः ॥७॥
शुद्ध आहार खिलाया और उचित जल ग्रहण कराया परन्तु उसने ग्रहण करनेके बाद सब दुर्गन्धमय वमन कर दिया ॥५०॥ रानीने उस सब उच्छिष्टको स्वयं धोया और अपनी निन्दा की कि अवश्य ही मेरेसे आहारमें कोई अपथ्य वा अयोग्य वस्तु दी गई है ॥५१॥ रेवतीके अपने निन्दात्मक वचन सुनकर उसने अपना बनाया हआ रूप छोड़कर अपना असली रूप धारण कर लिया। उसने रानीकी बार-बार प्रशंसा की और पहिलेका अपना सब हाल कह सुनाया ॥५२॥ तदनन्तर उसने रानीसे अपने गुरुदेवकी कही हुई धर्मवृद्धि कही, उसके अमूढदृष्टि अंगकी प्रशंसा की और फिर अपने स्थानको चला गया ॥५३।। इसके बाद राजा वरुणने कितने ही दिन तक राज्य किया और फिर अपने पुत्र शिवकीर्तिको राज्य देकर कर्मोंको नाश करने के लिये दीक्षा धारण कर ली ॥५४॥ उसने बहुत दिन तक सुख देनेवाला तपश्चरण किया और अंतमें समाधिपूर्वक शरीरका त्यागकर माहेन्द्र स्वर्ग में बड़ी ऋद्धिका धारक देव हुआ ॥५५॥ रानी रेवतीने भी दीक्षा धारण कर ली और भयको भी भय देनेवाला घोर तपश्चरण कर, स्त्रीलिंग छेदकर ब्रह्मस्वर्गमें उत्तम देव हुई ॥५६॥ वहाँपर उसकी दस सागरकी आयु थी। दस सागर तक अनेक सुखोंका अनुभव कर वह रेवती रानीका जीव अवश्य ही मोक्ष प्राप्त करेगा ॥५७।। इस अमूढदृष्टी अंगमें और भी बहुतसे लोग प्रसिद्ध हुए हैं परन्तु उन सबकी कथाएँ कौन कह सकता है। उन सबकी कथाएँ जैन शास्त्रोंसे जान लेनी चाहिये ॥५८|| जो विद्वान् विचार करने में चतुर हैं उन्हें देव, धर्म, गरु तथा दान पूजा शास्त्र आदिमें होनेवाली मढता अवश्य छोड़ देनी चाहिये ॥५९॥ यह अमूढदृष्टी अंग इस संसारमें स्वर्ग मोक्षके सुखको देनेवाला है इसलिये सम्यग्दर्शन गणको प्राप्त करनेके लिये मन वचन कायकी शुद्धतापूर्वक इस अमूढदृष्टी अंगको अवश्य पालन करना चाहिये ॥६०॥ जिसने सम्यग्दर्शनके निर्मल गुणोंको विभूतिसे मूढता आदि सब दोषोंको छोड़ दिया था, भगवान् जिनेन्द्र देवकी भक्तिपूर्वक
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