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________________ २३८ श्रावकाचार-संग्रह गृहीतं नियमं सारं यावज्जीवं जहामि न । अचलं मेरुवत्तात प्राणान्तेऽपि कदाचन ॥१२ कला विज्ञानसम्पन्ना चैत्रे सख्या वनेऽपि सा। निजोद्याने महारूपा दोलयन्ती यदा स्थिता ॥१३ रूप्याद्रिदक्षिणश्रेण्यां किन्नराख्ये पुरे वसन् । विद्याधराधिपो नाम्ना कुण्डलाद्यन्तमण्डितः ॥१४ । सुकेशीभार्यया युक्तो गच्छन् खे स स्मरत्यहो । दृष्ट्वा तां जीवितव्येन तेन कि मेऽनया विना ॥१५ गृहे धृत्वा स्वरामां च शीघ्रमागत्य तेन सा । नीता दुष्टेन खे बाला रुदन्ती शीलभूषिता ॥१६ उन्मानादागतां भार्यां दृष्ट्वा तेन भयेन सा । समर्पितानुप्रज्ञप्त्याख्यपर्णलघुविद्ययोः ॥१७ स्थापिता सा महाटव्यां ताभ्यां दुःखाकुला सती। नीता भीमाख्यभिल्लेन राज्ञापि निजपल्लिकाम् ॥१८ पट्टराज्ञिपदं देवि ददामीच्छसि मां हठात् । अनिच्छन्ती हि प्रारब्धा भोक्तुं रात्रौ खलेन सा ॥१९ शोलमाहात्म्यसंक्षोभादागत्य दुःखदुष्कृतः । वनदेवतया तस्योपसर्गो यष्टिमुष्टिभिः ॥२० भीतेन तेन तां नीत्वा देवतां सा समर्पिता । सार्थपुष्पकनाम्नश्च सार्थवाहस्य वेगतः ॥२१ लोभं प्रदर्घ्य दुर्बुद्धिः परिणेतुं स याचते । न वाञ्छति सती तं सा निःकाक्षितगुणाश्रिता ।।२२ नगर्यामप्ययोध्यायां दत्ता चानीय तेन सा । वेश्यायै कामसेनायै शीलसम्पूर्णभूषणा ॥२३ न जाता तत्र वेश्या सा हावभावविकारिभिः । कतातिधीरतापन्ना यथा मेरुशिखा दृढा ॥२४ पर्वतके समान निश्चल होकर आजन्म उसका पालन करूंगी ॥११-१२॥ किसी एक दिन युवावस्था प्राप्त होनेपर चैत्रके महीने में अपने बगीचेमें महारूपवती और कला विज्ञानसे परिपूर्ण वह अनन्तमती झूल रही थी ॥१३॥ इसी समय विजयार्द्ध पर्वतको दक्षिण श्रेणीके किन्नरपुर नगरके विद्याधरोंका राजा कुण्डलमंडित अपनो रानी सुकेशीके साथ विमानमें बैठा हुआ आकाशमार्गसे जा रहा था। अचानक उसकी दृष्टि अनन्तमतीपर पड़ी। उसे देखकर वह मोहित हो गया और विचार करने लगा कि इसके बिना मेरा जीना हो व्यर्थ है ॥१४-१५।। यही सोचकर वह घर लौटा, उसने अपनी रानीको घरपर छोड़ा फिर वह दुष्ट शीघ्र ही आकर शीलगुणसे सुशोभित और रोती हुई अनन्तमतीको लेकर आकाशमार्गसे चलने लगा ॥१६॥ उसकी रानीको भी कुछ सन्देह हो गया था इसलिये वह भी उसके पीछे-पीछे ही दौड़ो आई । रानीको देखकर वह विद्याधर डर गया और शीघ्र ही अनन्तमतीको प्रज्ञप्ता और पर्णलघ्वी नामको विद्याके अधीन किया ॥१७॥ उन दोनों विद्याओंने अत्यन्त दुःखसे व्याकुल सतो अनन्तमतीको किसी एक बड़े वनमें छोड़ दिया परन्तु वहाँ भी उस बेचारीको सुख नहीं मिला। एक भीम नामके भीलोंके राजाने उसे अपने अधीन कर लिया और अपने घर ले जाकर प्रार्थना की कि तू मुझे स्वीकार कर, मैं तुझे पट्ट रानी बना लूंगा, परन्तु वह सती कब स्वीकार करनेवाली थी; उसको अनिच्छा देखकर रात्रिमें वह भीम उसपर बलात्कार करने लगा ॥१८-१९।। परन्तु उस सतीके शीलके माहात्म्यसे क्षुब्ध होकर वनदेवी प्रगट हुई और उसने लकड़ी थप्पड़ आदिको चोटोंसे भीमको खूब ही खबर ली ॥२०॥ भीम बहुत ही डर गया और उसने समझ लिया कि यह नारी नहीं है किन्तु नीचेको नेत्र किये हुए कोई देवता है। उसने शीघ्र ही पुष्पक नामके एक साहूकारको वह अनन्तमती सौंप दी ॥२१॥ वह मूर्ख साहूकार भी लोभ दिखाकर उसके साथ विवाह करनेकी प्रार्थना करने लगा, परन्तु निःकांक्षितगुणको धारण करनेवाली उस सतोने किसीकी भी इच्छा नहीं की ॥२२।। तब उस दुष्ट साहूकारने अयोध्या नगरीमें आकर शीलगुणसे विभूषित वह अनन्तमती एक कामसेना नामकी वेश्याके हाथ सौंप दी ॥२३।। उस कामसेनाने भी उसे अनेक प्रकारके दुःख दिये तथा हाव भाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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