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________________ छठा परिच्छेद पद्मप्रभमहं वन्दे पद्मयानासनं भुवि । सत्पद्यालंकृतं पद्मद्युतिं पद्माकरं परम् ॥१ निःकाङ्क्षितगुणे ख्याता जातानन्तमती हि या । कथां वक्ष्ये समासेन तस्या सद्दृष्टिहेतवे ॥२ अङ्गदेशे जनाकीर्णे चम्पाख्या नगरी शुभा । उच्चजनालयोपेता नित्यं सन्मुनिसंयुता ॥३ वर्द्धमानो महीपालस्तत्राभूत्पुण्ययोगतः । राज्ञी लक्ष्मीमती तस्य बभूव प्राणवल्लभा ॥४ संजातः प्रियदत्ताख्यः श्रेष्ठी श्रीधर्मकारकः । भार्या चाङ्गवती तस्य जातानेकगुणाश्रिता ॥५ तयोः पुत्री समुत्पन्ना सम्यक्त्वादिविभूषिता । दानपूजादिसंलीना ख्यातानन्तमती सती ॥६ गृहीतं ब्रह्मचयं च स्वयमष्टदिनान्वितम् । धर्मको तिमहाचार्यपार्श्वे नन्दीश्वरविधौ ॥७ ग्राहिताऽसौ विनोदेन ब्रह्मचर्यं सुखाकरम् । पुत्री धर्मादिसंयुक्ता श्रेष्ठिना धर्मशालिना । ८ प्रदानसमये साऽऽह तात मे दापितं त्वया । ब्रह्मचर्यमतस्तेन तत्पाणिग्रहणेन किम् ॥९ दापितं क्रीडया पुत्रि मया ते तन्न चान्यथा । का क्रीडा तात सद्धमंदानपूजाव्रतादिके ॥१० दिनाष्टकमिदं पुत्रि दापितं ते मया तदा । ब्रूतं न मुनिना किचिद्दिनमानं व्रते वरे ॥११ जो कमलासन पर विराजमान हैं, जिनके चरणकमलोंके नीचे कमलोंकी रचना होती है, जो कमलके चिन्हसे सुशोभित है, कमलकी सी ही जिनकी कान्ति है और जो अन्तरंग बहिरंग लक्ष्मोके परम निधि हैं ऐसे भगवान् पद्मप्रभको नमस्कारकर में सम्यग्दर्शनको निर्मल करनेके लिये दूसरे निःकांक्षित गुण में प्रसिद्ध हुई अनन्तमतीकी कथा संक्षेपसे कहता हूँ ॥१-२॥ अनेक मनुष्यों से भरे हुए अंग देशकी राजधानी चम्पापुरी थी । वह चम्पापुरी नगरी बड़ी ही अच्छी थी, अनेक जिनालयोंसे सुशोभित थी और सदा अनेक उत्तम मुनियोंसे विभूषित रहती थी । पुण्य कर्मके योग से उसमें वर्द्धमान नामका राजा राज्य करता था । उसकी प्राणप्यारी रानीका नाम लक्ष्मीमती था ||३४|| उसी नगरीमें एक प्रियदत्त नामका धर्मात्मा सेठ रहता था । उसकी सेठानीका नाम अंगवती था और वह अनेक गुणोंसे सुशोभित थी ॥५॥ उन दोनोंके एक पुत्री थी जिसका नाम अनन्तमती था । वह अनन्तमती सम्यग्दर्शनसे सुशोभित थी और दान, पूजा आदि धार्मिक कार्यों में सदा लीन रहती थी || ६ || किसी एक दिन नन्दीश्वर पर्वके दिनोंमें केवल आठ दिनके लिये दोनों सेठ-सेठानियोंने श्री धर्मकीर्ति नामके आचार्यके पास ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया ||७|| उस धर्मात्मा सेठने सदा धर्मकार्योंमें लगी रहनेवाली अनन्तमतीको भी विनोदपूर्वक सुख देनेवाला ब्रह्मचर्य व्रत धारण करा दिया || ८|| अनन्तर जब सेठने उसके विवाहको चर्चा चलाई तब अनन्तमतीने अपने पिता से कहा कि हे तात ! आपने मुझे ब्रह्मचर्यं व्रत दिला दिया है फिर आप मेरे विवाहको चर्चा क्यों करते हैं ? ||९|| उसके उत्तरमें सेठने कहा कि हे पुत्री ! मैंने वह व्रत विनोदके लिये दिलाया था वास्तवमें नहीं । यह सुनकर अनन्तमती कहने लगी कि हे तात ! धर्म, दान, पूजा और व्रतोंमें भी कहीं विनोद हुआ करता है ? || १०|| तब सेठने फिर कहा कि हे पुत्री ! वह तो केवल आठ दिनके लिये दिलाया था ? इसके उत्तरमें अनन्तमतीने कहा कि उस समय मुनिराजने व्रतोंके पालन करनेके लिये दिनोंकी कुछ मर्यादा नहीं बतलाई थी इसलिये मैंने तो वह ब्रह्मचर्य जीवनपर्यन्त धारण कर लिया है। अब मैं उसे प्राण-नाश होनेपर भी कभी नहीं छोडूंगी और मेरु For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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