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________________ २२० श्रावकाचार-संग्रह वानाविपल्लवोपेतं ध्यानपुष्पं जिनश्वराः । स्वर्गमुक्तिफलाढयं च धर्म कल्पमं जगुः ॥१०७ अमृतादपरं न स्यान्मिष्टं कल्पतरोः परम् । वृक्षो यथा तथा धर्मो दयायाश्च परो न च ॥१०८ कुधर्म दूरतस्त्यक्त्वा श्रीधर्म कुरु सौख्यदम् । जिनाख्यातं दयोपेतमेकचित्तेन प्रत्यहम् ॥१०९ भगवंस्तं कुधर्म हि प्ररूपय ममादरात् । प्रणीतः केन सल्लोके पापादिदुःखदायकः ॥११० यागादिकरणं विद्धि जीवहिंसादिसम्भवम् । कुधर्म स्नानजं निन्द्यं तपंणं श्राद्धमेव च ॥१११ जीवादिहिंसनं ये च कुर्वन्ति कारयन्त्यहो । धर्मयागकुदेवादिकायें श्वभ्रे पतन्ति ते ॥११२ यदि हिंसादिसंसक्ता नाकं गच्छन्ति दुर्मदाः । केनैव कर्मणा श्वभ्रं के च यान्ति विचारय ॥११३ जीवनाशकरं स्नानं रागपापादिवर्द्धनम् । धर्मध्वंसकरं विद्धि सागरादिषु प्रत्यहम् ॥११४ यदि स्वर्गो भवेद्धर्मः स्नानादपि पवित्रता । प्राणिनां च तदा मत्स्याः स्वर्ग गच्छन्ति धीवराः ॥११५ चित्तमन्तर्गतं दुष्टं यस्य नित्यं प्रवर्तते । तस्य शुद्धिः कथं स्नानाज्जायते मद्यकुम्भवत् ॥११६ तिलपिण्डं जले मूढा क्षिपन्ति पितृतृप्तये । ये तेऽतिदुर्गति यान्ति त्रसनीराहिंसनात् ॥११७ तर्पणं ये प्रकुर्वन्ति मृतजीवादि श्रेयसे । मिथ्यात्वसत्त्वसंवातावारण्ये भ्रमन्ति ते ॥११८ स्कन्ध हैं, उत्तम क्षमा आदि दश धर्मरूपी शाखाओंसे यह सुशोभित है, दान पूजा आदि नित्य कर्म ही इसके पत्ते हैं, ध्यान ही इसके पुष्प हैं और स्वर्ग मोक्ष ही इसके फल हैं। इस प्रकार यह धर्म एक कल्पवृक्षके समान है ॥१०६-१०७।। जिस प्रकार अमृतके सिवाय अन्य कोई वस्तु मिष्ट नहीं है, तथा कल्पवृक्षसे अन्य कोई श्रेष्ठ वृक्ष नहीं है उसी प्रकार दयाधर्मके सिवाय अन्य कोई धर्म नहीं है ।।१०८। इसलिये हे भव्य ! तू पापरूप कुधर्मको छोड़कर भगवान् जिनेन्द्रदेवके कहे हुए तथा सुख देनेवाले दयारूपो धर्मको प्रतिदिन एकाग्रचित्त होकर पालन कर ॥१०९॥ प्रश्न हे भगवन् ! अब कृपाकर मुझे कुधर्मका स्वरूप बतलाइये। यह दुःख देनेवाला पापरूप कुधर्म इस संसारमें किसने चलाया है ॥११०॥ उत्तर-यज्ञ आदिका करना और बुद्धिपूर्वक जीव हिंसा आदिका करना सब कूधर्ग है। इसके सिवाय धर्म समझकर नदी, समद्रोंमें स्नान करना, तर्पण श्राद्ध करना आदि भी कूधर्म है ॥१११।। जो यज्ञके लिये, धर्म के लिये वा कूदेवोंके लिये जीवकी हिंसा करते हैं वा कराते हैं वे अवश्य नरकमें पड़ते हैं ।।११२।। यदि हिंसा आदि पापोंमें आसक्त रहने वाले नीच लोग हो स्वर्गको जाते हैं तो फिर कोनसे जोव कौन कौनसे कामोंके द्वारा नरकमें जायंगे? इसका थोड़ा सा भी विचार कर ॥११३।। प्रतिदिन नदी समुद्र में स्नान करनेसे अनेक जोवोंका नाश होता है, रागादिक पाप बढ़ते हैं और धर्मका नाश होता है, ऐसा तू समझ ॥११४।। यदि हिंसा करनेसे हो धर्म होता है और स्नान करनेसे ही पवित्रता आती है तो फिर मछली आदि जलचर जीव और धीवर आदि धातक जीव ही स्वर्गको जायंगे अन्य नहीं ? ॥११५।। जिस प्रकार मद्यसे भरे हुए घड़ेकी शुद्धि धोनेसे नहीं होती उसी प्रकार जिसका हृदय सदा दुष्ट बना रहता है उसकी शुद्धि केवल स्नान करनेसे कभी नहीं हो सकती ।।११६|| जो अज्ञानी जीव पितरोंको तप्त करनेके लिये तिलोंका पिंड जलमें डालते हैं वे जीव त्रस जीवोंकी और जलकायिक जीवोंकी हिंसा करनेके कारण दुर्गतिमें ही उत्पन्न होते हैं ॥११७|| जो जीव मरे हुए जीवोंका कल्याण करनेके लिये तर्पण करते हैं और उसमें अनेक जीवोंकी हिंसा करते हैं वह सब उनका मिथ्यात्व है। ऐसे मिथ्यात्वको सेवन करनेवाले जीव संसाररूपी वनमें सदा परिभ्रमण ही किया करते हैं ॥११८|| जो जीव मृत माता पिताओंको सुख पहुँचानेके लिये श्राद्ध करते हैं वे आकाशके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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