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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार २१९ नमन्ति यदि गां मूढाः घ्नन्ति यष्टचादिभिः कथम् । वन्दते यज्जलं तेन शौचं कुर्युः कथं च ते ४ अहो पिप्पलदूर्वादोन पूर्व यान् पूजयन्ति ये । छेदयन्ति पुनस्तांश्च ते खला दुष्टबुद्धयः ॥९५ कुदेवादिसमस्तांश्च त्यक्त्वा त्वं भज श्रीजिनान् । एकचित्तेन भो धीमन् स्वर्गमुक्तिसुखाप्तये ॥९६ वीतरागान् परित्यक्त्वा कुदेवान् सेवते कुधीः । योऽमृतं हि स संत्यज्य गृह्णन् हालाहलं विषम् ॥९७ भजते तीर्थनाथान् यः कुदेवान् से पते पुनः । इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्टः सः स्याज्जम्बुकवत्कुषीः ॥९८ यथाणोश्च परं नाल्पं न महद्गगनात्परम् । तथा श्रीजिनदेवेन समो देवो न विद्यते ॥९९ इति मत्वा जिनाधोशान् मनोवाक्कायकर्मभिः । भज त्वं वत्स मुक्त्यर्थ धर्मार्थ वा विशुद्धिवान् ॥१०० निश्वयं कृत्य तीर्थेशं तदुक्तं धर्ममाचर । अहिंसालक्षणं सारं सर्वसत्त्वसुखप्रदम् ॥१०१ मुक्तिसौख्याकरो धर्मो मुनीनां कथितो जिनैः । स्वर्गऋद्धिप्रवः स्तोकः स च धावकगोचरः ॥१०२ संसारसागरे मग्नान् जीवानुदधृत्य यो ध्रुवम् । धत्ते मुक्तिपदे तं हि धर्म वर्मेश्वरा विदुः ॥१०३ वदन्ति फलमस्यैव धर्मस्य श्रीजिनेश्वराः । नित्याभ्युदयस्वर्गादिसुखं साक्षाद्धि मुक्तिजम् ॥१०४ धर्मादभ्युदयः पुंसां सुखं चक्रयादिगोचरम् । इन्दादिजं च स्यान्नित्यं तीर्थनाथ निषेवितम् ॥१०५ सद्दर्शनमहामूलं सद्दयाजलसिञ्चितम् । ज्ञानं वृत्तं महास्कन्दं क्षमादिशाखशोभितम् ॥१०६ मगरमच्छ आदिकी योनिमें उत्पन्न होते हैं ।।९३।। जो मर्ख लोग गायको नमस्कार करते हैं फिर वे उसे लकड़ी आदिसे मारते क्यों हैं ? जिस जलको वन्दना करते हैं फिर वे उस जलसे शौचक्रिया क्यों करते हैं ॥९४।। आश्चर्य है कि जिन पोपल आदि वृक्षोंको पहिले पूजते हैं, नमस्कार करते हैं फिर उन्हींको वे नष्ट बुद्धि मूर्ख काटते हैं ।।१५।। इसलिये हे बुद्धिमान् भव्य जीव ! स्वर्ग मोक्षके सुख प्राप्त करने के लिए तू एकाग्रचित्त होकर समस्त कुदेवोंको छोड़कर श्री जिनेन्द्रदेवको ही पूजा भक्ति कर ॥९६।। जो अज्ञानी वीतराग परमदेवको छोड़कर कुदेवोंकी सेवा भक्ति करता है वह मानों अमृतको छोड़कर हलाहल विष ग्रहण करता है ॥९७|जो तीर्थंकर परमदेवकी पूजा करता हआ भी अन्य कुदेवोंको पजा करता है वह उस मर्ख ( उस शृगाल )के समान है जो इधरसे भो भ्रष्ट हो जाता है और उधरसे भी भ्रष्ट हो जाता है ॥९८।। जिस प्रकार परमाणुसे अन्य कोई छोटा नहीं है और आकाशसे अन्य कोई बड़ा नहीं है उसी प्रकार श्री जिनेन्द्रदेवके समान अन्य कोई देव नहीं है ।।१९।। यही समझकर हे वत्स ! तू मोक्ष प्राप्त करनेके लिये आत्माका विशुद्ध करनेवाले भगवान् जिनेन्द्रदेवको पूजा भक्ति मन वचन कायसे कर ॥१००॥ इस प्रकार तीर्थंकर परमदेवका निश्चय कर लेनेपर तु उन्हींके कहे हुए धर्मका आचरण कर । वही धर्म अहिंसामय है, सारभूत है और सब जीवोंको सुख देनेवाला है ॥१०१॥ वह धर्म दो प्रकारका है-एक मुनियोंके करने योग्य और दूसरा श्रावकोंके पालने योग्य । मुनियोंका धर्म मोक्ष सुखको देनेवाला है और एक देश श्रावकोंका धर्म स्वर्गोंके सुख देनेवाला है ॥१०२॥ जो संसाररूपी महासागरमें डूबे हुए जीवोंको निकालकर मोक्षपदमें विराजमान कर दे उसीको गणधरादि देवोंने धर्म कहा है । वह धर्म उत्तम क्षमा आदि ही है अन्य नहीं ॥१०३।। श्री जिनेन्द्रदेवने इस धर्मका फल सदा ऐश्वर्य विभूतियोंका प्राप्त होना, स्वर्गके सुख प्राप्त होना और साक्षात् मोक्षके सुख प्राप्त होना बतलाया है ॥१०४॥ इस धर्मके प्रभावसे मनुष्योंको अनेक प्रकारके ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं और चक्रवर्ती इन्द्र आदिके सुख सदा प्राप्त होते रहते हैं ऐसा श्री तीर्थंकर परमदेव ने कहा है ।।१०५॥ श्री जिनेन्द्रदेव इस धर्मको एक कल्पवृक्षके समान बतलाते हैं। गम्यरत इसकी बड़ी भारी जड़ है, यह दयारूपी जलसे सींचा जाता है, ज्ञान और चारित्र ही इसके महा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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