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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार २१५ इच्छा यस्य भवेन्नित्यं भक्षणादिकगोचरा । तस्य लोभः कथं न स्यात्संसारीजीववत् ध्रुवम् ॥४५ सति लोभे नहि ज्ञानं केवलं प्रकटं भवेत् । ज्ञानादिविरहानैव सर्वज्ञः कथ्यते बुधैः ॥४६ आहारास्वादनाद्यस्य ज्ञानमिन्द्रियसम्भवम् । तस्य श्रीकेवलस्यैव दत्तं नीराञ्जलित्रयम् ॥४७ भोजनं कुरुते यस्तु तस्य दोषकदम्बकम् । भवत्येव न सन्देहो भाषितं मुनिपुंगवैः ॥४८ आहारादिसमायुक्ता यदि देवा भवन्ति । तदा सर्वे मनुष्याश्च सर्वज्ञाः संभवन्त्यहो ॥४९ अनेकगुणसम्पूर्णः सर्वज्ञः सर्वलोकवित् । त्यक्ताहारमहासंज्ञो भवेद् घातिविघातनात् ॥५० यदोंदुस्तीवतां धत्ते चंचलत्वं च मन्दरः । तथापि वल्भने नव जिनोऽनन्तसुखाकरः ॥५१ उपोषितस्य जीवस्य भोजनं कथ्यते यदि । महत्पापं भवत्येव व्यलोकप्रवादतः ॥५२ जगद्गुरोः सुदेवस्य वीतरागस्य भोजनम् । ये वदन्ति दुराचारास्तेषां पापं न वेदम्यहम् ॥५३ निश्चयं कुरु भो मित्र क्षुद्दोषाविविजिते । वल्लभादिपरित्यक्ते जिने मुक्तिस्वयंवरे ॥५४ अनेकातिशयापन्नं प्रातिहार्यादिभूषितम् । ज्ञानादिगुणसंयुक्तं भज त्वं जिननायकम् ॥५५ वा सर्वदर्शी होनेसे संसारभरके मद्य मांस आदि समस्त निषिद्ध पदार्थों को एक साथ देखते हैं फिर भला वे किस प्रकार आहार ग्रहण कर सकते हैं ? अर्थात् कभी नहीं ॥४४॥ विचार करनेकी बात है कि जब भगवान् अरहन्तदेवके सदा भोजन करनेकी इच्छा बनी रहेगी तो फिर उनके अन्य संसारो जीवोंके समान लोभ भी अवश्य मानना पड़ेगा (क्योंकि इच्छा लोभसे ही होती है लोभकी ही एक पर्याय है) ॥४५॥ तथा लोभके रहते हुए उनके केवलज्ञान प्रगट नहीं हो सकता और केवलज्ञानके न होनेसे वे कभी सर्वज्ञ नहीं हो सकते ॥४६।। इसके सिवाय एक बात यह भी है कि आहार ग्रहण करनेसे उनके आहारका स्वाद भी अवश्य होगा और स्वाद होनेसे उनका ज्ञान इन्द्रियजन्य ज्ञान मानना पड़ेगा क्योंकि स्वादका ज्ञान जिह्वा इन्द्रियसे ही होगा, विना जिह्वा इन्द्रिय ज्ञानके स्वाद आ ही नहीं सकता तथा उनके ज्ञानको इन्द्रियजन्य माननेपर केवलज्ञानके लिये पानीकी तीन अंजलि अवश्य देनी पड़ेगी अर्थात् फिर उनके केवलज्ञानका सर्वथा अभाव मान लेना पड़ेगा ( और केवलज्ञानका अभाव होनेसे सर्वज्ञता आदि सबका अभाव मानना पड़ेगा। इसीलिये श्री अरहंतदेवके आहारकी कल्पना करना सर्वथा भ्रम है ) ॥४७॥ जो भोजन करेगा उसके अन्य दोषोंका समूह अवश्य उत्पन्न होगा इसमें कोई सन्देह नहीं है । ऐसा अनेक मुनिराजोंने निरूपण किया है ॥४८॥ यदि आहार ग्रहण करते हुए ही देव हो जाय तो फिर संसारके सभी मनुष्योंको सर्वज्ञ मान लेना चाहिये ॥४९॥ भगवान् अरहंतदेव अनेक गुणोंसे परिपूर्ण हैं, सर्वज्ञ हैं, समस्त लोक अलोकके जानकार हैं और घातिया कर्मोंके नाश होनेसे आहार परिग्रह आदि सब दोषोंसे रहित हैं ॥५०॥ यदि कदाचित् चन्द्रमासे अग्नि निकलने लगे और मंदराचल पर्वत चलने लगे तो भी अनंत सुखोंके निधि भगवान् जिनेन्द्रदेव आहार ग्रहण नहीं कर सकते ॥५१॥ यदि किसी जीवने उपवास किया हो और उसके लिये कोई यह कहे कि आज इसने भोजन किया है तो उस कहनेवालेको झूठ बोलने के कारण महा पाप होता है, फिर भला जो लोग जगद्गुरु देवाधिदेव वीतराग भगवान् अरहंतदेवके आहार ग्रहण करनेकी कल्पना करते हैं उनके पापको हम लोग कभी नहीं जान सकते अर्थात् वे सबसे अधिक पापी हैं ।।५२-५३।। इसलिए हे मित्र ! तुम्हें निश्चय कर लेना चाहिये कि भगवान् अरहन्तदेव भूख, प्यास आदि सब दोषोंसे रहित हैं अतएव आहार भी कभी ग्रहण नहीं करते इसीलिये मुक्तिस्त्रीने उनको स्वयं स्वीकार किया है ॥५४॥ हे भव्य.! वे भगवान् जिनेन्द्रदेव अनेक अतिशयोंसे सुशोभित हैं, आठों प्रातिहार्योंसे विभूषित हैं और ज्ञानादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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