SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१४ बावकाचार-संग्रह एतैः सर्वमहादोषः वजिता ये जिनेश्वराः । ते भवन्ति जगत्पूज्या देवा लोकोत्तमा नृणाम् !!३४ अष्टादशमहादोषैर्वजितं जिननायकम् । सर्वलोकहितं देवं भज त्वं सुरपूजितम् ॥३५ ।। आहारं वीतरागस्य ये केचन वदन्ति मे । तत्स्यात्सत्यमसत्यं वा स्फेटय त्वं हि संशयम् ॥३६ आहारं यदि गृह्णाति क्षुधादोषं लभेत सः । तृषादोषं पुनर्जेयं पिपासाववेनाविजम् ॥३७ द्वेषः क्षुवेदनोत्पन्नो रागो मोहश्च भक्षणात् । चिन्तनं तस्य चिन्ताया आमयं तीवदुःखतः ॥३८ आहारसंज्ञया युक्तो जन्ममृत्युजरादिकान् । यः कथं संत्यजेत्सोऽपि श्रीजिनोऽपीश्वरादिवत् ॥३९ आहारालाभतो द्वषो विषावश्चारतिर्भवेत् । निद्रा संलभते तस्माज्जिनस्यैवास्मदादिवत् ।।४० कातरत्वेन यो देवो गृह्णन्नाहारमञ्जसा । अनन्तं तस्य वीर्यं च कथं संकल्पते वृथा ॥४१ क्षुद्वेदना समा न स्यात्काचित्पीडा शरीरिणाम् । क्षुद्वेदनादियुक्तो यस्तस्या अन्तसुखं कुतः ॥४२ आहारनाममात्रेण प्रमत्तः कथ्यते मुनिः । अत्यक्ताहारभोगो यः सः सर्वज्ञः कथं भवेत् ॥४३ तुच्छवीर्यो नरो नाति मद्यमांसादिदर्शनात् । संयुक्तोऽनन्तवीर्येण कथं भुङ्क्ते जिनोत्तमः ॥४४ दोषोंसे रहित हैं वे ही भगवान् जिनेन्द्रदेव हैं, वे ही जगत पूज्य हैं, वे ही संसारमें उत्तम हैं और वे ही मनुष्योंके परम देव हैं ॥३४॥ हे भव्य जीव ! भगवान् अरहन्तदेव इन अठारह महादोषोंसे रहित हैं, समस्त जीवोंका हित करनेवाले हैं और देवोंके द्वारा भी पूज्य हैं इसलिये तू उनकी ही सेवा भक्ति कर ॥३५॥ कोई कोई लोग भगवान् वीतरागके भी आहार मानते हैं उनका कहना सत्य है अथवा असत्य है तू इस सन्देहको भी सर्वथा छोड़ दे ॥३६।। यदि भगवान् अरहन्तदेव आहार ग्रहण करें तो उनके क्षुधा दोष अवश्य मानना पड़ेगा तथा क्षुधाके साथ साथ प्यास भी अवश्य होगी और जब भूख प्यासकी तीव्र वेदना होगी तब भय भी अवश्य ही होगा ॥३७॥ द्वेष भूख प्यासको वेदनासे ही उत्पन्न होता है और भोजन करनेसे सग मोह होता है। भोजन आदिका चितवन करनेसे चिंता होती ही है और फिर तीव्र दुःख होनेसे रोग होता ही है ॥३८॥ जो श्री जिनेंद्रदेव ईश्वरके समान आहार संज्ञाको करते हैं—आहार लेते हैं तो फिर वे जन्म-मरण आदि दोषोंको भला कैसे छोड़ सकते हैं ? अर्थात् आहारके साथ जन्म मरण जरा आदि अन्य दोष भी अवश्य मानने पड़ेंगे ॥३९॥ यदि आहारकी प्राप्ति न हो तो द्वेष होता है, विषाद होता है और अरति होती है तथा आहारकी प्राप्ति होनेसे निद्रा अवश्य होती है। ऐसी अवस्थामें अरहंत देवकी सेवा करना हमारी सेवा करनेके ही समान है । भावार्थ-यदि अरहंतदेवके आहार माना जायगा तो फिर उनके भी हमारे तुम्हारे समान सब दोष मानने पड़ेंगे फिर उनमें हममें कोई अंतर नहीं रहेगा ॥४०॥ अरे जो देवाधिदेव होकर भी कातरता धारण कर आहार ग्रहण करते हैं फिर भला उनके व्यर्थ ही अनंत वीर्यकी कल्पना क्यों करते हो अर्थात् कातरोंके अनंतवीर्य कैसे हो सकता है ॥४१॥ इस संसारमें जीवोंके भूखके दुःखके समान और कोई पीड़ा नहीं है और ऐसी वह सबसे बड़ी पीड़ासबसे बड़ा दुःख जिसके है उसके भला अनंत सुख कैसे हो सकता है। भावार्थ-भगवान् अरहंतदेवके आहारकी कल्पना करनेपर फिर उनके अनंत सुखका भी अभाव अवश्य मानना पड़ेगा ॥४२॥ अरे जो मुनि आहारका नाम भी लेते हैं वे भी प्रमत्तसंयमी कहलाते हैं-प्रमाद सहित कहलाते हैं फिर भला जिन्होंने आहारका त्यागतक नहीं किया है जो आहार ग्रहण करते हैं वे सर्वज्ञ कैसे हो सकते हैं ? ॥४३॥ जो अत्यंत अल्प शक्तिका धारण करनेवाले हैं वे भी मद्य मांस आदि निषिद्ध पदार्थोके देख लेनेपर भोजन नहीं करते, अन्तराय मानकर भोजनका त्याग कर देते हैं फिर भला वे श्री जिनेन्द्रदेव अनन्त शक्तिको धारण करते हैं-अनंतवीर्य सहित हैं और सर्वज्ञ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy