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________________ श्रावकाचार-संग्रह अतिथिसंविभागोऽयं व्रतं व्यावणितं मया । अतिचारास्तु पञ्चास्य मोक्तव्यास्ते महात्मभिः ॥१२० आद्यः सचित्तनिक्षेपोऽन्यः सचित्तपिधानकः । परव्यादेशमात्सर्य कालातिक्रम इत्यमी ॥१२१ व्रतस्यास्य परं नाम केचिदाहुर्मुनीश्वराः । वैय्यावृत्यं न चार्थस्य भेदः कोऽप्यत्र विद्यते ॥१२२ वैय्यावृत्यस्य भुक्त्यादेश्चतुर्धास्य निदर्शनाः । श्रीषेणो वृषभसेना कौंडेशः सूकरो ज्ञेयाः ॥१२३ मुनीनां प्रणतेरुच्चैर्गोत्रं भोगस्तु दानतः । लभ्यते सेवनात्पूजा भक्ते रूपं स्तुतेर्यशः ॥१२४ व्रतमेतत्सदा रक्षन्पात्रान्वेषणतत्परः । यस्तिष्ठेत्तदलाभेऽपि स स्यात्तत्फलभाग्नरः ।।१२५ भावो हि पुण्यकार्यत्र पापाय च भवेन्नृणाम् । तस्मात्पुण्यार्थिना पुंसा निजः कार्यः शुभः स तु॥१२६ सत्पात्रालाभतो देयं मध्याय यथाविधिः । पात्राय तदलाभे तु जघन्याय स्वशक्तितः ॥१२७ रोगिणं च जराक्रान्तं पराधीनं गवादिकम् । पथ्यादिनोपचासौ स्वयं भुञ्जीत बन्धुयुक् ॥१२८ ( आरम्भ ) कर्म-रहित मुनियोंको दिया हुआ दान सावद्यसे उत्पन्न होनेवाले पापको नियमसे नाश करता है जैसे निर्मल जल लगे हए कीचड़को दूर करता है ।।११९|| यह अतिथि संविभाग नाम व्रतको मैंने अच्छी तरहसे वर्णन किया। इसके पाँच अतीचार हैं वे महात्मा पुरुषोंको छोड़ने चाहिये ॥१२०।। सचित्त निक्षेप–सचित्त वस्तुओंमें दान देनेको वस्तुएँ रखना, सचित्तपिधानदान योग्य आहारादिको सचित्त वस्तुओंसे ढकना, परव्यपदेश-दानके योग्य किसी अपनी वस्तुको दूसरोंकी कहना, मात्सर्य-दान देते हुए दूसरे पुरुषोंसे द्वेष करना, कालातिक्रम-मुनियोंके भोजनके समयको उल्लंघन करके : हार देना ये पाँच अतिथि संविभागवतके अतिचार हैं अतिथि संविभागवतीको छोड़ने चाहिए । कितने आचार्य इसी अतिथि संविभागवतका दूसरा नाम वैय्यावृत्य कहते हैं परन्तु इस नाममें अर्थ-भेद कुछ नहीं है। केवल नाम भेद समझना चाहिए ॥१२२।। इस वैय्यावृत्य ( अतिथिसंविभाग ) नाम व्रतके जो भोजन दान, औषध दान, शास्त्र दान तथा वसतिका दान इस तरह चार विकल्प हैं इन चारों के ---श्रीषेण, वृषभसेना नाम सेठकी कन्या, कोण्डेश तथा सूकर ये चार उदाहरण (दृष्टान्त) समझने लाये। भावार्थ-चारों दानोंमें ये चारों प्रसिद्ध हुए हैं इसलिये दानका फल देखकर भव्य पुरुषोंको अपनी प्रवृत्ति दानमें करनी चाहिये ॥१२३।। जो भव्य पुरुष मुनियोंको भक्ति पूर्वक नमस्कार करते हैं वे नमस्कारके पुण्यसे उत्तम गोत्रमें पैदा होते हैं। जो मुनि लोगोंको भक्ति पूर्वक दान देते हैं वे उत्तम स्वर्गादिके भोगोंके भोगने वाले होते हैं। जो उनकी सेवा करते हैं वे संसारमें और लोगोंके द्वारा सेवनीय होते हैं। जो लोग भक्ति करते है वे मनोहर रूपके धारी होते हैं। और जो भक्ति पूर्वक स्तुति करते हैं वे संसारमें पवित्र यशके भोगने वाले होते हैं। इसलिये आत्महितके अभिलाषो पुरुषोंको भक्ति पूर्वक ये सर्व कार्य करने चाहिये ॥१२४।। इस अतिथिसंविभाग ( वैयावृत्य ) व्रतकी रक्षा करता हुआ जो निरन्तर महनीय पात्रोंके ढूंढने में प्रयत्नपरायण रहता है वह पुरुष पात्रके अलाभमें भी अतिथि संविभाग व्रतके फलका भोगने वाला होता है ।।१२५।। आत्माका परिणाम ही तो पुण्यका सम्पादन करनेवाला तथा पापका उत्पादक होता है इसलिये जो पुण्यको इच्छा करनेवाले हैं उन्हें अपने परिणाम शुभरूप रखना चाहिये ॥१२६।। यदि सत्पात्र ( उत्तमपात्र ) का संयोग न मिले तो उनके अभावमें यथा शास्त्रानुसार मध्यमपात्रोंको दान देना चाहिये, यदि मध्यम पात्रोंका भी संयोग न मिले तो उनके अभावमें शक्त्यनुसार जघन्यपात्रोंको दान देना चाहिये ॥१२७॥ रोगी पुरुषोंका अथवा वृद्ध पुरुषोंका तथा पराधीन गाय आदिका पथ्यादिसे उपचार करके अपने बन्धुलोगोंके साथ फिर आप भोजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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