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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार यत्सूनायोगतः पापं संचिनोति गृही घनम् । स तत्प्रक्षालयत्येव पायदानाम्बुपूरतः ॥११० साधुः स्यादुत्तमं पानं मध्यमं देशसंयमी । सम्यग्दर्शनसंशुद्धो व्रतहीनो जघन्यकम् ॥१११ उत्तमादिसुपात्राणां दानाभोगभुवस्थिधा । लभ्यन्ते गृहिणा मिथ्यादृशा सम्यग्दृशाऽव्ययः ॥११२ यौकद्वित्रिपल्यायुर्जीवन्ति युगलान्यहो । एकद्वित्रिकगव्यूतिकायानि द्युतिमन्ति च ॥११३ भोजनवस्त्रमाल्यादिदशधाकल्पभूरुहैः । दत्ताभोगान्मनोभीष्टान्भुक्त्वा यान्त्यमरालयम् ॥११४ पात्रे स्वल्पव्ययं पुंसामनन्तफलभाग्भवेत् । भुक्त्वा दत्तं यथायुक्ति शुद्धक्षेत्रोप्तबीजवत् ॥११५ भोक्तुं रत्नत्रयोच्छायो दातुः पुण्यचयः फलम् । शिवान्तनानाभ्युदयदातृत्वं तद्विशिष्टता ॥११६ अणुव्रतादिसम्पन्नं कुपात्रं दर्शनोज्झितम् । तदानेनाश्नुते दाता कुभोगभूभवं सुखम् ॥११७ अपात्रमाहुराचार्याः सम्यक्त्ववतजितम् । तद्दानं निष्फलं प्रोक्तमुषरक्षेत्रबीजवत् ॥११८ सावद्यकर्ममुक्तानां वानं सावद्यसंभवम् । पापं शोधयेक्षिप्तं मलं वारीव निर्मलम् ॥११९ शरीरके बाह्य मलादिको दूर करनेवाला शौचोपकरण कमण्डलु है ।।१०९।। गृहस्थ लोग पञ्च सूना ( पीसना, खांडना, चूल्हा सुलगाना, पानी भरना, और झाड़ना ) के सम्बन्धसे जिस पाप समूहका संग्रह करते हैं उसे पात्रदानरूप जल प्रवाहसे नियमसे धो डालते हैं ॥११०|| मुनिलोग उत्तम पात्र कहे जाते हैं, देशसंयमी ( एकदेशव्रती ) मध्यम पात्र कहे जाते हैं और जो सम्यग्दर्शन करके युक्त हैं परन्तु व्रत-रहित ( अव्रत सम्यग्दृष्टि ) हैं वे जघन्य पात्र कहे जाते हैं ॥१११।। मिथ्यादृष्टि गृहस्थ उत्तम, मध्यम तथा जघन्य पात्रोंके दानसे क्रमसे उत्तम भोगभूमि, मध्यम भोगभूमि तथा जघन्य भोगभूमिमें जाते हैं और सम्यग्दष्टि पुरुष अव्यय पदको प्राप्त होते हैं ।।११२।। उन तीनों भोगभूमि में मनुष्य क्रमसे एक पल्य, दो पल्य तथा तीन पल्य पर्यन्त आयुके धारक होते हैं तथा कान्ति युक्त एक कोश, दो कोश और तीन कोश ऊँचे शरीरके धारक होते हैं ।।११३।। उन भोगभूमियोंमें-भोजनाङ्ग, वस्त्राङ्ग, माल्याङ्ग, ज्योतिषाङ्ग, भूषणाङ्ग, पानाङ्ग आदि दश प्रकारके कल्पवृक्षोंसे प्राप्त हुए मनोभिलषित अनेक प्रकारके उत्तम भोगोंको भोगकर इसके बाद वे स्वर्गमें जाते हैं ॥११४।। उत्त दिपात्रोंमें भोजनके द्वारा किया हुआ थोड़ा भी दान भव्य पुरुषोंको-यथा युक्ति पवित्र क्षेत्र ( खेत ) में बोये हुए बीजकी तरह अनन्त गुणा फलका देनेवाला होता है । भावार्थजिस तरह खेतमें थोड़ा भी धान्य बहुत फलको देनेवाला होता है उसी तरह पात्रोंके लिये थोड़ा भी भी व्यय किया हुआ द्रव्य अनन्त गुणा होकर फलता है इसलिये आत्महितके जिज्ञासु पुरुषोंको पात्र सरीखे सत्कार्यमें अपनी पाई हुई लक्ष्मीका सदुपयोग करना चाहिये ॥११५।। भोजन करनेवाले पात्रके तो रत्नत्रयकी उन्नति, दान देनेवाले दाताके पुण्यका संचयरूप फल और मोक्ष पर्यन्त अनेक प्रकारके अभ्युदयको देनेवाला दातृत्व ये दानमें विशेष होते हैं। भावार्थ-उत्तम पात्र, दाता तथा द्रव्य इनके विशेषसे दानमें भी विशेषता होती है ॥११६।। अणुव्रतादिसे युक्त परन्तु यदि सम्यग्दर्शनसे रहित है तो उसे कुपात्र समझना चाहिए। कुपात्रोंको दान देनेसे दाता कुभोगभूमिसे उत्पन्न होनेवाले सुखोंको भोगनेवाला होता है ॥११७॥ जो सम्यग्दर्शन और व्रतसे सर्वथा रहित हैं उन्हें महर्षि लोग अपात्र कहते हैं। अपात्रमें दिया हुआ दान ऊषर भूमिमें बीज बोनेके तुल्य निष्फल है । भावार्थ-जैसे ऊपर भूमिमें बोया हुआ बीज व्यर्थ जाता है उसी तरह अपात्रोंको दान देनेसे द्रव्यका केवल दुरुपयोग होता है उससे फल कुछ . भी नहीं होता ॥११८|| सावध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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