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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार एवं विधि विधायासौ यत्क्षिप्तं शुद्धभोजनम् । चर्मादिसंगनिर्मुक्तं प्रासुकं कोमलं हितम् ॥९० नानीतं कन्दुकादिभ्यो नायरतं न चिरोद्भवम् । न विद्धं देवसंकल्प्यं न होनादिकृते कृतम् ॥९१ रात्रौ च नोषितं स्वादचलितं पुष्पितं न यत् । नवकोटिविशुद्धं यत्पिण्डशुद्धयुक्तदोषमुक् ॥९२ चतुर्दशमलैर्मुक्तमन्त रायातिगं च यत् । तस्मै तद्भोजनं देयं ज्ञात्वाऽवस्थां मुनेच्दा ॥९३ श्रद्धालुभक्तिमांस्तुष्टः क्षमावाशक्त्यलोपकः । निर्लोभः कालविज्ञानी दाता सप्तगुणो भवेत् ॥९४ पात्रं सम्यक्त्वसम्पन्नं मूलोत्तरगुणान्वितम् । स्वं तरच्च परान्दातृ स्तारयेच्च सुपोतवत् ॥९५ गोचरीभ्रमरीदाहप्रशामन्नाक्षमृक्षवत् । गर्त्तापूरणवद्भुङ्क्ते यत्तत्पात्रां प्रशस्यते ॥९६ अद्याहं सफलो जातः फलितो मे शुभद्रुमः । कल्पवृक्षादयो लब्धाः प्राप्तं पात्र यदीदृशम् ॥९७ एवमानन्दपूर्वो यो निदानादि-विवजितः । दत्ते पात्राय सद्भक्ति तत्पुण्यं केन वर्ण्यते ॥९८ पात्राय विधिना द्रव्यं दाता सप्तगुणैर्युतः । यो दत्ते किल तत्पुण्यं कथं मोक्षाय नो भवेत् ॥९९ इस प्रकार मुनियोंके योग्य सत्कारादि करके और उस समय मुनिराजकी अवस्था पर ध्यान देकर उनके योग्य हर्ष पूर्वक पवित्र भाजन (पात्र) में रखा हुआ, चर्मादि अपवित्र वस्तुओंके सम्बन्धसे रहित, पवित्र प्रासुक (जीवादिरहित), कोमल, जिसके खानेसे शरीरमें किसी प्रकारको बाधा न हो, ग्रामान्तरसे लाया हुआ न हो, विद्ध न हो, देवादिकोंके अर्थ संकल्प किया हुआ न हो, नीच लोगोंके लिये बनाया हुआ न हो, रात्रि में बना हुआ न हो, स्वादसे विचलित चलित रस न हो गया हो, जिस पर फूलन वगैरह. न चढ़ गई हो, मन, वचन, काय, और कृत, कारित, अनुमोदना रूप इस तरह नव कोटीसे शुद्ध हो, पिण्ड शुद्धि नाम अधिकारमें वर्णन किये हुए दोषोंसे रहित हो तथा अन्तरायरहित हो, ऐसा पवित्र आहार मुलि राजके लिये देना चाहिये ॥९०-९३॥ पात्रोंमें श्रद्धा युक्त हो, भक्ति करके युक्त हो, सन्तोषी हो, क्षमावान हो, अपनी शक्तिके अनुसार सद्व्ययी हो, अर्थात् कृपण न हो, लोभ-रहित हो, और समयको जानने वाला हो, ये दान देने वाले दाताके सात गुण हैं । इन्हींसे युक्त दाता कहा जाता है । जिनमें ये गुण नहीं हैं वे साधु लोगोंके दान देनेके पात्र भी नहीं हैं ॥९४॥ जो पवित्र सम्यग्दर्शनसे युक्त हो, मूल गुण तथा उत्तर गुणोंसे युक्त हो, अपने आप भव समुद्रसे तिरने वाला तथा जहाजके समान दूसरे लोगोंको संसार सागरसे पार करनेवाला हो, वह पात्र कहलाता है ।।९५।। जो गोचरी वृत्ति या भ्रामरी वृत्तिसे, दाह-प्रशमनके समान, या अक्षम्रक्षणके समान, या गर्तपूरणके समान राग-रहित होकर यथा लब्ध भोज्य वस्तुको खाता है वह पात्र प्रशंसनीय कहा जाता है ॥१६॥ आज मेरा जीवन सार्थक हआ। आज मेरा पूण्यरूप वृक्ष फलयुक्त हुआ। अहो ! आज मुझें कल्पवृक्ष, चिन्तामणि रत्न, कामधेनु आदि मनोऽभिलषित उत्तम उत्तम वस्तुएँ प्राप्त हुई जो आज मेरे अहो भाग्यसे ये बड़े भारी तपस्वी रत्न मेरे गृहमें आहारके लिये पधारकर मुझ मन्दभागीके घरको अपने चरण कमलोंकी रजसे पवित्र किया ! ॥९७|| इस प्रकार आनन्दपूर्वक निदानादि ( आगामी सुखोंकी अभिलाषा ) से रहित जो भव्य पुरुष भक्ति सहित उत्तम पात्रोंके अर्थ पवित्र आहार देता है ग्रन्थकारका कहना है कि उस महादानके प्रभावसे होनेवाले पुण्य राशिका कहाँ तक वर्णन करें ॥९८॥ सात गुणोंसे युक्त जो दाता पात्रोंके अर्थ अपने द्रव्यका सदुपयोग करते हैं उन भव्य पुरुषोंका वह पवित्र पुण्य क्या मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला नहीं होगा? किन्तु अवश्य होगा। भावार्थ-पात्र दान मोक्षका कारण है इसलिये भव्य गृहस्थोंको दान देने में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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