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________________ १३८ श्रावकाचार-संग्रह अनवेक्षितप्रमाजितोत्सर्गादानसंस्तराः । अनादृतिस्मृत्यनुपस्थाने तम्यातिचारकाः ।।७९ अततीत्यतिथिर्जेयः समयं त्वविराधयन् । तस्ययत्संविभजनं सोऽतिथिसंविभागकः ॥८० अथवा न विद्यते यस्य तिथिः सोऽतिथि कथ्यते । तस्मै दानं व्रतं तस्यादतिथेः संविभागकम ॥८१ अतिथिः प्रोच्यते पात्रं दर्शनवतसंयुतम् । स्वानुग्रहार्थमुत्सर्गो दानं तस्मै प्रदीयताम् ॥८२ आहारौषधवासोपकरणं तच्चतुर्विधम् । भुक्त्यादौ सद्विधिद्रव्यदातपात्रविशेषतः ॥८३ प्रतिग्रहोच्चकैः पीठपादप्रक्षालनार्चनम् । प्रणामो योगशुद्धिश्चैषणाशुद्धिविभिदाः ॥८४ गृही देवार्चनं कृत्वा मध्याह्न साम्बुभाजनः । पात्रावलोकनं द्वास्थः कुर्याद्भक्तया सुधौतभृत् ।।८५ नरलोके विदेहादौ पात्रेभ्यो वितरन्ति ये। भक्त्याऽऽहारं तु ते धन्याश्चिन्तयदित्यसौ तदा ॥८६ आयादावीक्ष्य सत्पात्रं भ्रमद्वा चन्द्रचर्यया । गत्वा नमोऽस्तु भगवंस्तिष्ठ तिष्ठति त्रिर्वदेत् ॥८७ नीत्वा गृहं तदर्ह यदुच्चपीठं प्रदाय च । पादौ प्रक्षाल्य तद्वारि वन्दित्या चाष्टधार्चयेत् ॥८८ नमस्कृत्य त्रियोगेन पूतश्चन्द्रोपकोर्ध्वगाम् । शुद्धां भोजनशालां तन्नात्वा संशोध्य भोजयेत् ॥८९ बिना माजनके किये मल-मूत्रादिका क्षेपण करना, अनवेक्षितप्रमाजित आदान-वना देखे अथवा विना मार्जन किये शास्त्रादि उपकरणोंका ग्रहण करना, अनवेक्षितप्रमाजितसस्तर-बिना देखे और विना मार्जन किये शय्या आदि विछाना, अनादर-उपवासमें अनादर करना तथा स्मत्यनुपस्थानउपवाराकी तिथि आदि भूल जाना ये पाँच प्रोषधोपवासके अतीचार प्रोषधोपवासव्रती श्रावकको छोड़ने चाहिये ||१९|| जो संयमकी विराधना न करके गमन करता है वह अतिथि कहा जाता है। उस संयम-पालक अतिथिका जो विभाग करना है अर्थात् भक्ति पूर्वक आहारादि देना है उसे अतिथि संविभाग नाम चौथा शिक्षाव्रत कहते हैं ।1८०॥ अथवा जिसका तिथि (स्वामी) संसारमें कोई नहीं है उसे अतिथि कहते हैं उसके लिये जो दान देना है उसे अतिथि संविभाग नाम शिक्षाव्रत कहते है ।।८१।। अतिथि वे कहे जाते हैं जो सम्यग्दर्शन तथा व्रतादिसे युक्त हैं और अपने कल्याण के अर्थ उत्सर्ग अर्थात् द्रव्यका पात्रोंमें सदुपयोग करनेको दान कहते हैं। वह दान उपर्युक्त अतिथियोंको देना चाहिये ।।८२॥ आहार दान, औषध दान, वसतिका दान तथा उपकरण दान इस तरह दानके ये चार भेद हैं । सद्विधि, सद्रव्य, सद्दाता तथा सत्पात्र इनके विशेषसे इन दानोंमें भी विशेषता होतो है ॥८३।। अतिथिका ग्रहण, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, पूजन, प्रणाम, मनःशुद्धि, वचन शुद्धि, कायशुद्धि तथा एषणा शुद्धि ये सब विधिके भेद हैं ॥८४।। गृहस्थोंको-जिन भगवान्का पूजन करने के बाद मध्याह्न समयमें जलका भाजन हाथमें लेकर अपने घरके द्वार पर स्थित होकर भक्ति पूर्वक पात्रोंका अवलोकन करना चाहिये ।।८५। पात्रावलोकनके समय गृहस्थोंको चिन्तवन करना चाहिये कि-इस मनुष्य लोकमें अथवा विदेह क्षेत्रादिमें जो पुण्यात्मा पुरुष भक्ति पर्वक पात्रोंके लिये आहार देते हैं वे धन्य हैं ।।८६।। सत्पात्रको आये हुए चन्द्रचर्यासे भ्रमण करते हुए देखकर उनके समीप जाकर हे भगवन् ! आपके चरणों में नमस्कार है ऐसा कहकर तिष्ठ ! तिष्ठ !! तिष्ठ !!! ऐसा तोन वार कहै। छोटे-बड़े या सधन-निर्धनका विचार न करके चन्द्रमाके सदृश सबके घर पर अपना प्रकाश फैलाने वाले साधुकी गोचरी वत्तिको चन्द्रचर्या कहते हैं ।।८७।। इसके बाद उन्हे अपने गृह पर ले जाकर और उनके योग्य ऊंचा स्थान देकर उनके चरण कमलोंका पवित्र जलसे प्रक्षालन करे। पश्चात् उस जलको मस्तक पर लगाकर जलादि अष्ट द्रव्योंसे पूजन करना चाहिये ॥८८।। अनन्तर मन वचन कायसे उन्हें प्रणाम करके जिसके ऊपर चन्द्रोपक (चन्दोवा) लग रहा है ऐसी शुद्ध भोजनशालामें मुनिको ले जाकर शुद्धि पूर्वक आहार करावे ।।८९|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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