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________________ श्रावकाचार-संग्रह स्नानादिजिनबिम्बेऽसौ साम्यायं कुरुताद्गृही । यथाम्नायं प्रयुञ्ज्यातद्विना संकल्पितेऽर्हति ॥५७ व्रतमेतत्सुदुःसाध्यमपि सिद्धयति शोलनात् । किं निम्नीक्रियते नाश्मा पतद्वाबिदुना मुहुः । ५८ तस्य पञ्चव्यतीचारा योगदुःप्रणिधानकम् । अनादरः स्मृत्यनुपस्थाने वाः प्रयत्नतः ॥५९ प्रोषधः पर्ववाचीह चतुर्द्धाहारवर्जनम् । तत्प्रोषधोपवासाख्यं व्रतं साम्यस्य सिद्धये ॥६० पर्वाष्टमीचतुर्दश्यौ मासे मासे चतुष्टयम् । तस्य पूर्वाहमध्याह्न भोजयेदतिथि ततः ॥६१ भुक्त्वा शुद्धं विधायास्यं प्रक्षाल्य करपादको । तत्रैव नियमं कृत्वा युक्त्या गच्छेज्जिनालयम ॥६२ जिनान्स्तुत्वा तथा नत्वा कृतेर्यापथशोधनः । प्रत्याख्यानं प्रगृह्णीयाद्देवतासाक्षिकं ततः ॥६३ द्वावशाङ्गं नमस्कृत्य तथा गुणगुरून्गुरून् । प्रत्याख्यानं प्रयाचेत गुरुं तद्दत्तमाचरेत् ॥६४ तय वान्यत्र चैकान्ते क्वचित्सामिकैः सह । कालक्षेपं प्रकुर्वीत पठन् शृण्वन् श्रुतं ततः ॥६५ सन्ध्यायां कुरुतात्तत्र कृतकर्मोल्लसन्मनाः । ततः स्वाध्यायमादाय लपेत्पञ्चनमस्कतोः ॥६६ विपरीत–अनात्म, अशर्म, अनित्य तथा अशरण है ऐसे संसार में रहनेवाले मुझे दुःखके सिवाय और क्या होगा ! ऐसा बारंबार आपत्तिके समयमें बिचार करना चाहिये ।।५६।। गृहस्थोंको राग द्वेषकी हानिके लिये जिनप्रतिबिम्बमें अभिषेक, पूजन, स्तुति तथा जप ये सब आम्नायपूर्वक करना चाहिये। और संकल्पित (निराकार) अर्हन्त भगवान् में स्नानको छोड़कर शेष पूजन, स्तवन, जप करना चाहिये ॥५७॥ यद्यपि यह सामायिक व्रत अत्यन्त कठिन है तथापि परिशीलन (अभ्यास) करनेसे सिद्ध हो ही जाता है । यही बात दृष्टान्त द्वारा स्फुट करते हैं-यद्यपि पाषाण स्वभावसे अतिशय कठोर होता है तो भी बार-बार गिरनेवाला जल बिन्दु क्या उसमें गर्त (खड्डा) नहीं बना देता है अर्थात् बना ही देता है ।।५८॥ मनोदुष्प्रणिधान-क्रोध, लोभ, अभिमान, द्रोह, ईर्ष्या आदिका उत्पन्न होना. अथवा अन्तःकरणकी व्यग्रता होना, वचन दुष्प्रणिधान-धीरे उच्चारण करना. अस्पष्ट उच्चारण करना अथवा जल्दी उच्चारण करना, कायदुष्प्रणिधान-हस्त पादादि शरीरावयवोंका निश्चल न रहना, अनादर-सामायिक विधिमें अनादर (अनुत्साह) होना, नियमित समय सामायिक न करना अथवा शीघ्रतासे किसी तरह करना, स्मृत्यनुस्थापन--प्रमादादिसे सामायिक करना भूल जाना ये पांच सामायिक शिक्षाव्रतके अतीचार हैं इस व्रतके धारक पुरुषोंको त्यागने चाहिये ॥५९।। प्रोषध यह शब्द पर्व वाची है और खाद्य, स्वाद्य, लेह्य तथा पेय इन चार प्रकारके आहारके छोड़नेको प्रोषधोपवास कहते हैं वह राग द्वेषकी हानिके लिये किया जाता है ॥६०॥ अष्टमी और चतुर्दशी ये पर्व माने जाते हैं । एक महीने में दो अष्टमी तथा दो चतुर्दशी इस तरह चार पर्व होते हैं । इनके पहले दिन अर्थात् सप्तमी और त्रयोदशीके दिन मध्याह्न समयमें अतिथियों (मुनि आदि) को आहार कराना चाहिये ॥६१।। मुनि आदि उत्तम पुरुषको आहार करानेके अनन्तर स्वयं भोजन करके मुख शुद्ध करे। इसके बाद हाथ पाँव धोकर और अपने घर पर ही नियम करके युक्ति पूर्वक जिन मन्दिर जावै ॥६२|| धीरे धीरे मार्गको देखता हुआ जिन मन्दिर जाकर ईर्यापथ शुद्धिकर जिन भगवान्का स्तवन करे तथा नमस्कार करके जिन देवकी साक्षीसे प्रत्याख्यान ग्रहण करे ॥६३॥ पश्चात् द्वादश अङ्ग स्वरूप जिनवाणीको तथा जो गुणोंसे महत्त्व युक्त हैं ऐसे गुरुओंको नमस्कार करके उनसे प्रत्याख्यानकी याचना करे और जिस प्रकार वे प्रत्याख्यान दें उसे उसी तरह पालन करे ॥६४॥ जिनालयमें अथवा और किसी एकान्त स्थानमें अन्य धर्मात्माओंके साथ शास्त्र सुनता हुआ तथा स्वयं शास्त्रपठन करता हुआ काल व्यतीत करे ॥६५॥ इसके बाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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