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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार एकान्ते निर्मले स्वास्थ्यकरे शीतादिवजिते । वन्दनां कुर्वतो देशे क्षेत्रशुद्धिश्च सा मता ॥४५ उदयास्ताप्राक्पाश्चात्य वित्रिनाडीषु यः सुधीः । मध्याह्ने तां च यः कुर्यात्कालशुद्धिश्च तस्य सा ॥४६ पर्यड्काद्यासनस्थायी बद्धवा केशादि यो मनाक् । कुर्वस्तां न चलत्यस्याऽऽसनशुद्धिर्भवेदियम् ॥४७ ममेदमहमस्येति संकल्पो जायते न चेत् । चेतनेतरभावेषु सान्तःशुद्धिजिनोदिता ॥४८ हुँकारो ध्वनिनोच्चारः शीघ्रपाठो विलम्बनम् । यत्र सामायिके न स्यादेषा वाक्छुद्धिरिष्यते ॥४९ हस्तपादशिरःकम्पावष्टम्भादिर्न यत्र वै । कायदोषो भवेदेषा कायशुद्धिरिहागमे ॥५० द्विनतिद्वादशावर्तशिरोनतिचतुष्टये। तत्र योऽनादराभावः सा स्याद्विनयशुद्धि का ॥५१ स्तुति तिस्तनत्सर्गः प्रत्याख्यानं प्रतिक्रमः । सामायिके भवन्त्येते षडावश्यकमेकतः ॥५२ अथवा वीतरागाणां मुनीनां स्वात्मचिन्मनम् । यदा यदा भवेत्तेषां सदा सामायिकं तदा ॥५३ यत्र ग्रैवेयकं यात्यभाव्यः सामायिके रतः । सम्यग्दर्शनसंशुद्धो भव्यस्तत्र शिवं न किम् ॥५४ एतदेवात्मनो मोक्षसाधनं चेत्यतन्द्रितः । अवश्यं सन्ध्ययोः कुर्याच्छक्तिश्चेदन्यदापि तत् ॥५५ मोक्षः स्वः शर्म नित्यश्च शरणं चान्यथा भवः । तत्र मे वसतोऽन्यत्कि स्यादित्यापदि चिन्तयेत् ॥५६ अर्थात्-एकान्त, पवित्र, स्वास्थ्य करनेवाला तथा शीतउष्ण दंश-मशकादिकी बाधासे रहित प्रदेशमें वन्दना ( सामायिक ) करनेवाले पुरुषके क्षेत्रशुद्धि होती है ।।४५।। जो बुद्धिमान् सूर्योदयसे पहले तथा अस्त होनेके पश्चात् तथा मध्याह्न कालमें इस तरह तीनों समयमें तीन-तीन नाडी पर्यन्त सामायिक करते हैं उनके काल शुद्धि होती है ।।४६॥ पद्मासन अथवा खड्गासनादिसे स्थित होकर और कुछ केशादिको बांधकर सामायिक करता हुआ किसी तरह चलायमान न होकर निश्चल रहता है उसके आसन शुद्धि होती है ॥४७॥ चेतन और अचेतन वस्तुओंमें यह मेरी है अथवा में इसका हूँ, इस प्रकारकी कल्पनाके छोड़नेको जिनदेवने मनशुद्धि कहा है ॥४८|| सामायिक करनेके समय हुँकार करना, शब्दसे उच्चारण करना, जल्दी जल्दी पाठ बोलना तथा बहुत धीरेधीरे पाठ बोलना आदि जिस सामायिकमें नहीं हों उसे महर्षि लोग वचनशुद्धि कहते हैं ॥४९॥ सामायिक करनेके समय हस्त-कम्पन, शिरः-कम्पन तथा अवष्टंभ ( भित्ति आदिका सहारा लेना) आदि जो शरीर दोष हैं उनके न होनेको शास्त्रोंमें कायशुद्धि कहा है ॥५०॥ दो नमस्कार, बारह आवर्त और चार शिरोनति जिसमें होते हैं ऐसे सामायिक शिक्षाव्रतमें जो अनादरका अभाव होना उसे महर्षि लोग विनयशुद्धि कहते हैं ॥५१॥ सामायिकमें-स्तुति, नमस्कार, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण और समता ये क्रमसे षडावश्यक होते हैं ॥५२॥ अथवा वीतरागी मुनियोंके जिस जिस समय अपने आत्माका चिन्तवन होता है उस उस समय उनके निरन्तर सामायिक होता है ॥५३॥ जिस सामायिकवतके धारण करनेसे अभव्य पुरुष भी ग्रेवेयक पर्यन्त चला जाता है तो सम्यग्दर्शनसे पवित्र भव्य पुरुष उस व्रतके माहात्म्यसे मोक्ष नहीं जायगा? अवश्य जायगा ॥५४॥ यही सामायिक इस आत्माको मोक्ष प्राप्त करानेवाला है ऐसा हृदयमें निश्चय करके आलस रहित हो प्रातःकाल तथा सायंकालमें तो अवश्य ही सामायिक करना चाहिये। यदि इसके अतिरिक्त और भी सामर्थ्य हो तो अन्य मध्याह्न आदि कालमें भी करना चाहिये ।।५५॥ मोक्ष अनन्त ज्ञानादिस्वरूप है इसलिये आत्मस्वरूप है, उपाधि-रहित चित्स्वरूप है इस लिये सुख-स्वरूप है, कभी विनाश नहीं होगा, इसलिये नित्य स्वरूप है तथा किसी प्रकारकी विपत्तिका मोक्ष में गम्य न होनेसे विपत्तियोंसे रक्षा करनेवाला है इसलिये शरण है। और संसार इसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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