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________________ चतुथों ऽधिकारः पञ्चाणुव्रतरक्षार्थ पाल्यते शोलसप्तकम् । शस्यवत्क्षेत्रवृद्धयर्थं क्रियते महती वृतिः ॥१ गुणाय चोपकारायाहिंसादीनां व्रतानि तत् । गुणव्रतानि त्रीण्याहुदिग्विरत्यादिकान्यपि ॥२ दशदिक्ष्वपि संख्यानं कृत्वा यास्यामि नो बहिः । तिष्ठेदित्याऽऽमृतेर्यत्र तत्स्यादिग्विरतिव्रतम् ॥३ वाधिनद्यटवीभूध्रमर्यादा योजनानि च । विधाय तदविस्मृत्यै सीमां नात्येति कहिंचित् ॥४ तबहिः सूक्ष्मपापानां विनिवृत्तेमहाव्रतम् । फलत्यणुव्रतं तस्मात्कुर्यादेतदणुव्रती ॥५ नियमात्तद्वहिस्थानां त्रसस्थावरदेहिनाम् । रक्षणं कृतमेतेन ततोऽदोऽहमिहोदितम् ॥६ मलपञ्चकमूर्वाधस्तिर्यग्भागव्यतिक्रमाः । क्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तराधाने मोक्तव्यमेव तत् ।।७ अर्थः प्रयोजनं तस्याभावोऽनर्थः स पञ्चधा । दण्डः पापाश्रवस्तस्य त्यागस्तद्वतमुच्यते ॥८ वधो बन्धोऽङ्गच्छेदस्वहृती जयपराजयौ । कथं स्थादस्य चिन्तेत्यपधानं तन्निगद्यते ॥९ अहिंसादिक पाँच अणुव्रतोंके संरक्षणके लिए तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इस प्रकार सात शील पालन किये जाते हैं। जिस तरह धान्य-युक्त क्षेत्र (खेत) की वृद्धिके लिये उसके चारों ओर काँटेकी बाढ़ लगाई जाती है ।।१।। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्यादिकी वृद्धिके लिये तथा उपकारके लिये जो व्रत हैं उन्हें गुणव्रत कहते हैं। वे गुणवंत दिग्व्रत, अनर्थदण्डवत और भोगोपभोग परिमाणवत इस तरह तीन प्रकारके हैं ।।२।। दशोंदिशामें जानेकी अवधिकी संख्या करके उसके बाहर मैं नहीं जाऊँगा ऐसी प्रतिज्ञा करके मरण-पर्यन्त उसी मर्यादाके भीतर ही रहना दिग्विरति व्रत कहा जाता है ।।३।। किया हुआ दिग्विरति व्रत कभी विस्मरण न हो इसलिये समुद्र, नदी, अटवी, पर्वत तककी मर्यादा तथा योजन तक, की हुई सीमाका कभी भी उल्लंघन न करे ॥४॥ की हुई मर्यादाके बाहर-सूक्ष्म पापोंकी सर्वथा निवृत्ति हो जानेसे दिग्विरति व्रतके धारण करनेवाले पुरुषोंको महाव्रतका लाभ होता है। इसलिये अणुव्रत धारण करनेवाले पुरुषोंको यह दिग्विरतिव्रत धारण करना चाहिये ।।५।। दिग्विरतिव्रतके धारण करनेवालोंने-की हुई मर्यादाके बाहर रहनेवाले द्वीन्द्रियादि पञ्चेन्द्री पर्यन्त त्रस तथा पृथ्वी, जल, अग्नि आदि पञ्च प्रकारके स्थावर जीवोंकी नियमसे रक्षा की है इसलिये यह दिग्विरतिव्रत महाव्रतके योग्य कहा है । ६॥ ऊर्ध्वभागव्यतिक्रम-ऊपर जानेको जहाँ तक मर्यादा की है उससे अधिक ऊपर चढ़ना, अधोभागव्यतिक्रम-नीचे जहाँ तक जानेको अवधि की है उससे अधिक नीचे जाना, तिर्यग्भागव्यतिक्रमइसी तरह तिर्यग्दिशाकी जितनी मर्यादा की है उससे अधिक जाना, की हुई मर्यादाके बाहरके क्षेत्रमें जाने लगना, तथा की हुई मर्यादा भल जाना ये पाँच दिग्विरतिव्रतके अतीचार हैं। दिग्विरतिव्रत धारक पुरुषोंको छोड़ने चाहिये ||७|| प्रयोजनको अर्थ कहते हैं और जिस कार्यके करने में अर्थ (प्रयोजन) का अभाव हो उसे अनर्थ कहते हैं। वह अनर्थ पांच विकल्पमें विभाजित है। उस अनर्थका जो · दण्ड ( पापाश्रव ) उसे अनर्थदंड कहते हैं। और अनर्थदंडका जो त्याग (छोड़ना) वह अनर्थदंडत्यागवत कहलाता है ॥८॥ अमुकका मरण, बन्धन, शरीर छेद, धनका हरण, जय अथवा पराजय कैसे हो इस प्रकारका चिन्तन करनेको अपध्यान नाम अनर्थदंड कहते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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