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________________ धर्मसंग्रह श्रावकाचार दशास्योऽङ्गनादोषान्मृत्वाऽगाद्वालुकाप्रभाम् । धनं भुक्त्वाऽन्वभूदुःखं वेश्यातश्चारुदत्तकः ॥१६२ एकैकव्यसनेनेत्थं जीवोऽमुत्रेह दुःखितः । सर्वाणि सेवमानः को दुःखो स्यान्न महानपि ॥१६३ होडाद्यपि विनोदाथ मनसो तजिनः। दूषणं द्वेषरागौ हि भवन्तौ पापकारणम् ॥१६४ मुद्राचित्राम्बरायेषु न्यस्तपाणिभिदादिकम् । कुन्नि मुक्तपाद्धिस्तज्जनेऽपि हि निन्दितम् ॥१६५ न गृह्णीयाद्धनं जोवदायादाद्राजतेजसा । नापह्नवीत दायं वा चौर्यव्यसनशुद्धिभाक् ॥१६६ अन्यस्त्रीव्यसनत्यागवतशुद्धिसमोहकः । कुमारीरमणं मुछेदगान्धर्वादिविवाहकम् ॥१६७ वेश्यात्यागी त्यजेत्तौर्यत्रिकासक्ति कुसङ्गतिम् । वृथा भ्रमणमेतस्याः सदादिगमनादि च ॥१६८ योऽयं दर्शनिकः प्रोक्तः स चातीचारगः स्थिरः । स्वाचारे वचन स्यात्तत्पाक्षिकः परमार्थतः ॥१६९ तद्वत्सवतिकादिश्च दाढयं स्वे स्वे वतेऽवजन् । प्राप्नोति पूर्वमेवार्थात्पदं नैव तदुत्तरम् ॥१७० अनारम्भं वधं चोज्झेदारम्भं नोत्कटं चरेत् । स्वाचाराप्रातिकूल्येन लोकाचारे प्रवर्तयेत् ॥१७१ निःपादेयत्तमां भार्यां धर्मे स्नेहं परं नयन् । सा जडा विपरीता वा धर्मात्पातयते नृणाम् ॥१७२ खंडका स्वामी रावण मर करके बालुकाप्रभा नाम तीसरे नरकमें गया। वेश्याके सेवन करनेसे बत्तीस करोड़ दीनारके स्वामी चारुदत्तने अनेक दुःखोंको भोगा ॥१६२॥ देखो ! एक एक व्यसनोंके सेवनसे जो-जो दुःखी हुए हैं उनके उदाहरण नेत्रोंके सामने हैं । जो सातों व्यसनोंके सेवन करनेवाले हैं उनको क्या दशा होगी यह हम नहीं कह सकते ॥१६३॥ जो लोग जूआके खेलनेका त्याग किये हुए हैं उनके लिये अपने मनके विनोदके अर्थ शर्त आदिका लगाना भी दूषणका स्थान है। क्योंकि इससे होने वाले जो रागद्वेष हैं वे केवल पाप बन्धके ही कारण होते हैं ॥१६४|| जिन पुरुषोंको शिकारके खेलनेका त्याग है उन्हें मुद्रा ( सिक्का ), वस्त्र, भित्ति, काष्ठ आदिके ऊपर लिखे हुए चित्रोंके हाथ पाँव आदि नहीं तोड़ने चाहिये। क्योंकि उनको विनष्ट करना भी लोक निन्दित है ।।१६५।। जिन लोगोंको चोरीका त्याग है उन्हें चाहिये कि वे अपने कुटुम्बमें भाई बन्धु आदि जो लोग हैं उनसे राज्यादिके तेजसे धनको नहीं छीने और न धनको छिपावे ॥१६६॥ जो दूसरोंकी स्त्रियोंके साथ विषयादिके करनेका त्याग किये हुए हैं उन्हें चाहिये कि वे बालिका (अविवाहिता) के साथ रमण न करें तथा गान्धर्व विवाहादिक भी उन्हें नहीं करना चाहिये ॥१६७।। वेश्या त्याग व्रतीको गीत, वाद्य और नृत्य इनमें आसक्ति तथा खोटे पुरुषोंकी संगति नहीं करनी चाहिये। तथा व्यर्थ भ्रमण और वेश्याओंके यहाँ गमन भी नहीं करना चाहिये ॥१६८|| दर्शन प्रतिमाके धारण करनेवालेके व्रतोंमें कभी-कभी अतिचार लगता रहता है इसलिये वास्तवमें उसे पाक्षिक श्रावक ही कहना चाहिये ॥१६९।। जिस तरह दर्शन प्रतिमाके धारण करनेवालोंके व्रतोंमें कभीकभी अतीचार लगते हैं उसो तरह व्रतप्रतिमा आदि प्रतिमाओंके धारण करनेवालोंके व्रतोंमें अतीचार लगनेसे उन्हें भी जिस प्रतिमा में अतीचार लगा है उसके पूर्वकी प्रतिमाके धारण करनेवाले कहना चाहिये । वे लोग उत्तर प्रतिमाके धारक कभी नहीं कहे जा सकते ॥१७०।। कृषि आदिक जिन कार्यों में जीवोंकी बहुत हिंसा होती है उन्हें छोड़ना चाहिये और ऐसा कोई प्रचुर आरंभ भी नहीं करना चाहिये जिसमें जीवोंको बहुत हिंसा होती हो । तथा लोकाचार (स्वामीसेवा, क्रय, विक्रय आदि) इस तरहसे करना चाहिये जिसमें अपने व्रतादिमें किसी तरहकी बाधा न आवे ।।१७१।। अपनी स्त्रीके साथ बहुत प्रेम करता हुआ उसे धर्ममें अत्यन्त दृढ़ करे । क्योंकि यदि स्त्री निरी मूर्खा होगी अथवा अपने विचारोंसे विरुद्ध होगी तो समझिये कि निश्चयसे मनुष्यको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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